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शीलव्रत परामर्श, काम छंद, प्रतिघ, रूपराग, अरूपराग, मान, औद्धत्य एवं अविद्या ये दस संयोजन हैं। यद्यपि इन सबका नीवरण के रूप में प्रहरण हो ही जाता है फिर भी बीजरूप में शेष रहे सभी संयोजन का लोकोत्तर ध्यान में नाश किया जाता है। जिसके फलस्वरूप साधक में क्रमशः निम्न अवस्थाएँ प्राप्त होती हैं- स्रोतापन्न, ( स्रोतायन्ति), सकदागामी, अनागामी और अर्हन् । लोकोत्तर भूमि में चिन्ता की आठ अवस्थाओं में से प्रत्येक अवस्था में पांच प्रकार के रूप ध्यान का अभ्यास किया जाता है। इस प्रकार लोकोत्तर ध्यान में चित्त के चालीस भेद किये गये हैं। सभी ध्यानों में लोकोत्तर ध्यान ही श्रेष्ठ है तथा वही परिशुद्ध ध्यान है । ५१
ध्यान सम्प्रदाय :- बौद्ध धर्म का साधनात्मक और सैद्धांतिक स्वरूप भारतीय सीमा तक ही मर्यादित नहीं रहा। छट्ठी शताब्दी में बोधिधर्म ने चीन में बौद्धधर्म की स्थापना की। संस्कृत ध्यान शब्द प्राकृत में झान बनता है। चीनी अनुलिपि में यह शब्द 'चा' बन गया। जापानी अनुलिपि में यह शब्द 'जेन' बन गया। बोधिधर्म की मृत्यु के बाद भी अनेक आचार्यों ने इस परम्परा को विकसित किया। 'चान' और 'जेन' को ही ध्यान - सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध किया गया है । ५२ ये दोनों ताओ मत और कन्फ्यूशियल धर्म के साथ संबंध रखते हैं।
जैन साधना पद्धति :- आने वाले अध्यायों में जैन साधना पद्धति का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया जायेगा। अतः यहाँ पर उल्लेख मात्र से ही हम अपनी चर्चा समाप्त करते हैं। मुक्ति मार्ग में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग् चारित्र का विवेचन उत्तराध्ययन सूत्र में विस्तृत स्वरूप में किया है। ऐतिहासिक दृष्टि से जैन साधना पद्धति का विकास चार भागों में उपलब्ध है :
१) भगवान महावीर से आचार्य कुन्दकुन्द तक
२) आचार्य कुन्दकुन्द से आचार्य हरिभद्र तक
३) आचार्य हरिभद्र से उपाध्याय यशोविजय तक और
४) उपाध्याय यशोविजय से आधुनिक युग तक।
जैन दर्शन का हेतु मोक्ष है। संवर और निर्जरा उसके दो मार्ग हैं। उसके लिये तप की आवश्यकता है। ध्यान तप का प्रधान अंग है। इसलिए मोक्ष का मुख्य साधन ध्यान है । ५३
भारतीयेतर धर्मों की कुछ साधना पद्धतियाँ :- ऊपर हमने योग की अनेक भारतीय साधना पद्धतियों का उल्लेख किया है। परंतु मानवी मन की साधना पद्धतियों की ओर आकर्षण के स्वरूप विश्व के सभी भागों में अनेक प्रकार की साधना पद्धतियों का
ध्यान परंपरा में साधना का स्वरूप
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