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________________ अति मानस के तीन स्तर हैं जो संबुद्ध मन की तीन क्रियाओं के अनुरूप हैं : १) व्याख्यामूलक अतिमानस, २) सादृश्यमूलक अतिमानस और ३) प्रभुत्वमूलक अतिमानस । अरविन्द के योग का रहस्य रहा है कि जीवन के अन्दर दिव्य शक्ति की ज्योति, शक्ति, आनंद और सक्रिय निश्चलता को उतारकर मानव जीवन को सर्वांशतः रूपान्तरित कर उसमें अतिमानसिक ज्योति की प्रतिष्ठा करना है। इसे ही उन्होंने अध्यात्मयोग अथवा पूर्णयोग कहा है। सम्पूर्ण रूप से अपने को प्रभु के समक्ष अर्पित करना ही पूर्णयोग है। इस योग में अशुभ को कोई स्थान नहीं है । ३७ ध्यान साधना :- प्रार्थना, आकांक्षा, भक्ति, प्रेम और समर्पण आदि साधना के प्रथम चरण हैं और ध्यान प्रक्रिया से मस्तिष्क में एकाग्रता पाना ही केन्द्र का पूर्ण खुलना है जो इसे दिव्य से सीधा जोड़ता है। हमारे भीतर दिव्यत्व से चेतना को जन्म दिया जाता है। इसे नवजन्म अथवा आध्यात्मिक जन्म कहा जा सकता है। जितना अधिक समर्पण उतनी ही अधिक पूर्ण साधना । यही ध्यान साधना का मौलिक विचार तत्त्व है। बौद्ध साधना पद्धति :- बोधिसत्व की प्राप्ति के बाद गौतम बुद्ध ने चार आर्यसत्य प्रस्थापित किये। ये चार आर्य सत्य दुःख, दुःख समुदाय, दुःख निरोध, दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा के स्वरूप में शास्त्रों में उपलब्ध हैं। इस मार्ग का अवलंबन करने से दुःखों से छुटकारा मिल सकता है। बुद्ध धर्म की लोकप्रियता के साथ-साथ उसमें अनेक शाखाएँ, उपशाखाएँ विकसित हुईं। प्रमुख शाखाएँ विज्ञानवाद अथवा योगाचार माध्यमिक अथवा शून्यवाद, वैभाषिक और सौत्रातिक के नाम से जानी जाती हैं। इनकी साधना पद्धतियाँ अष्टांगिक नाम से जानी जाती हैं। बौद्ध शास्त्रों ने साधकों के विषय में भी बहुत ही विस्तृत विवेचन किया है, और सांसारिक दुःखों से छूटने का अष्टांगयोग ही एकमेव मार्ग बताया है । ३८ अष्टांग मार्ग में सम्यग्दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाचा, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि । ३९ इस मार्ग को गौतम बुद्ध के शब्दों में धर्मयान के नाम से भी माना जाता है । ४० इसका आधार शील, समाधि और प्रज्ञा है । ४१ अहिंसा, विवेक, तितिक्षा आदि का भी विवेचन किया गया है। अष्टांग साधना मार्ग का मूल सम्यग्दर्शन माना जाता है। इस प्रकार चार आर्य सत्य और अष्टांग मार्ग की सम्यग्दृष्टि साधना मार्ग का मूल मानी जाती है। इसी प्रकार शील अथवा सदाचार का भी बौद्ध साधना में एक विशेष स्थान है। ४२ बौद्ध ग्रंथों में शील का बहुत ही विस्तृत विवेचन उपलब्ध है और प्रायः सभी संभाव्य प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयत्न किया गया है। शील के साथ-समाधि और प्रज्ञा का भी उल्लेख मिलता है जैसा जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only ११ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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