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________________ ५) अरविन्द की साधना पद्धति :- अरविन्द आधुनिक युग के महायोगी हैं, जिनकी साधना भूमि पांडुचेरी रही है। इंग्लैंड से लौटने के बाद १६ वर्ष तक यानी १८९३ से १९०९ तक का समय, गायकवाड नरेश के साथ बडौदा में अंग्रेजी प्रोफेसर के रूप में व्यतीत किया। यहीं १६ वर्ष का काल उनकी सुप्त चेतना के बहुपक्षीय विकास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहा। क्रांतिकारी और आध्यात्मिक, दोनों ही जीवन का विकास यहीं से हुआ। १९०९ के सूरत अधिवेशन में 'नेशलिस्ट दल' के रूप में कांग्रेस से इनका दल पृथक् हो गया। स्वदेशी आंदोलन में सहयोग देने के कारण वे १९०९ में गिरफ्तार कर दिये गये। कारावास में ही उनके आध्यात्मिक जीवन का प्रारंभ हुआ। तब से पांडुचेरी के एकान्तवास में निरंतर योग साधना में लीन रहे। ___ आत्मा के साथ एकाकार होने की क्रिया को ही उन्होंने योग कहा था। क्योंकि उनके मन्तव्यानुसार योग विज्ञान और कला दोनों ही है। विज्ञान के द्वारा चिंतन, मनन व अनुभूति तथा एषणा के मानवीय उपकरणों की प्रकृति और चेतना के अन्य क्रियाकलापों की खोजबीन की जाती है और कला मस्तिष्क को पूर्णरूपेण नियंत्रित करने के व्यवहारिक तरीकों का, उसे 'अहं' और 'स्व' से निरासक्त कर, सच्चिदानंद से सम्मिलन कराता है। दिव्य अति मानव योग (पूर्ण योग) :- अरविन्द के पूर्वयोग की पीठिका अलीपुर कारागार, गीतोक्त योग साधना, वासुदेव दर्शन, विवेकानंदवाणी का श्रवण, चन्द्रनगर में वेदोक्त देवियों का दर्शन है। उनकी दृष्टि से संपूर्ण जीवन ही योग है। क्योंकि जीवन के तीन स्तर हैं :- अधिमानस, मानस और अतिमानस। अति प्राज्ञ समन्वय को अरविन्द 'तेजोमय समन्वय' की संज्ञा देते हैं। उनका मन्तव्य रहा है कि अतिप्राज्ञ की दिशा में बढ़ते हए चरण से संपूर्ण सत्य का अन्वेषन होगा ही। अधिमानस, मनस् और अतिमानस के बीच की कड़ी है। एक से अनेक की ओर, अनेक से एक की ओर गमन करने की यह सीढ़ी है। क्योंकि. मानव का स्वभाव है स्वयं अपने को अतिक्रम कर जाना। आत्मा का शुद्ध स्वरूप पाना। वह शुद्ध स्वरूप आत्मा, मन, प्राण और जडतत्त्व के परदे के पीछे है। वह आध्यात्मिक दिव्य, अतिमानव, वास्तविक पुरुष बनता है। जो मनोमय पुरुष से ऊपर है। अति मानव बनने का अर्थ है अपने मन, प्राण और शरीर का स्वामी बनना। अतः स्वयं 'तुम' बन जाने का अर्थ है दिव्य अति मानव बनना। ___ आत्मा में अमरत्व प्राप्त करना ही अतिमानव बनना है। इस योग का यही उद्देश्य रहा है कि उस सर्वोच्च सत्य चेतना में रूपांतरित होना अतिमानस चेतना नहीं, बल्कि उच्चतर चेतना है। उसमें प्रवेश किये बिना वास्तविक आनंद लोक में आरोहन करना असंभव है, क्योंकि अतिमानसिक रूपांतर सिद्धि की अंतिम अवस्था है।३६ ध्यान परंपरा में साधना का स्वरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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