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________________ राजयोग का कारण है। इसकी ध्यान-प्रक्रिया को 'ब्रह्मध्यान' कहते हैं। इससे सिद्धि प्राप्त महात्मा का नाम 'जीवन्मुक्ति' है। महाभाव (मंत्रयोग की समाधि) प्राप्त योगी महाबोध (हठयोग की समाधि) प्राप्त योगी और महालय (लययोग की समाधि) प्राप्त योगी तत्त्वज्ञान की सहायता से राजयोग-भूमि में अग्रसर होते हैं। यह समस्त योग साधनों में श्रेष्ठ एवं साधन की चरमसीमा होने से राजयोग है।२४ शास्त्रों में इसके सोलह अंग प्रतिपादन किये हैं२५ षोडश कला से परिपूर्ण राजयोग षोडश अंग वाला है। सप्त ज्ञान-भूमिकाओं के अनुसार सात अंग हैं। ये विचार प्रधान हैं। उनके साधन अनेक हैं। धारणा के दो अंग हैं- १) प्रकृति-धारणा और २) ब्रह्म-धारणा। ध्यान के तीन अंग हैं- १) विराट् ध्यान, २) ईश-ध्यान और ३) ब्रह्म-ध्यान। ब्रह्मध्यान में ही सबकी परिसमाप्ति है। समाधि के चार अंग हैं- दो सविचार और दो निर्विचार। इस प्रकार राजयोग के षोडश अंग हैं। मंत्रयोग, हठयोग, लययोग इन तीनों में सिद्धि हस्तगत करने के लिए अनन्तर अथवा किसी एक में सिद्धिलाभ करने के पश्चात साधक को राजयोग का पूर्ण अधिकार प्राप्त होता है। प्रथमतः राजयोग का साधन धारणा और ध्यानभूमि से प्रारंभ होता है और राजयोग की साधनाभूमि प्रधानतः समाधिभूमि है। समाधिभूमि में क्रमशः वितर्क, विचार, आनन्दागत अवस्था एवं अस्मितानुगत अवस्था प्राप्त होती है। विशेष लिंग, अविशेष लिंग, लिंग और अलिंग-ये चार दृश्य के भेद हैं। प्रथम के दो त्याज्य हैं। मैं ब्रह्म हूँ यह भाव भी निर्विकल्प समाधि में नहीं रहता। द्वैत भाव अथवा विकल्पभाव का अभाव ही तुरीयावस्था है। समाधिभूमि का साधन-क्रम शास्त्र से नहीं हो सकता। उसके लिये तो जीवन्मुक्त गुरु ही मार्गदर्शक है।२६ योग की अभ्यास पद्धति शरीर और मन दोनों को प्रभावित करती है। इसलिए ये सभी प्रणालियां एक दूसरे के लिए पूरक सिद्ध होती हैं। चर्चात्मक भेद व्यवहारिक दृष्टि से भले ही उपयोगी हो परन्तु प्रयोगात्मक दृष्टि से उसका विशेष महत्त्व नहीं माना जाता है। हम यह कह सकते हैं कि ये सभी साधना-पद्धतियां साधकों की अभिरुचि और मनोवृत्ति का स्वरूप प्रदर्शित करती हैं। योग में कुछ अन्य पद्धतियों का भी विवेचन हमारे इस अध्ययन में पोषक सिद्ध होगा। कुछ मतभेद के साथ हम तंत्रयोग का भी विश्लेषण आवश्यक समझते हैं। वैदिक, बौद्ध और जैन साधना प्रणाली में योग के समान ही तंत्रशास्त्र का विकास हुआ। और जिस प्रकार योग में विकृतियाँ आई उसी प्रकार तंत्रशास्त्र में भी विकृतियों ने आश्रय लिया। इस विकृति का कारण मानवीय स्वभाव की विभिन्न वृत्तियाँ और शास्त्रीय परंपराओं का ऐतिहासिक क्रम का लोप होना है। उपलब्ध ग्रंथों के सूत्रमय होने के कारण भाष्यकारों ने भी इनके विकार में योगदान दिया है। अब तो स्थिति ध्यान परंपरा में साधना का स्वरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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