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और पिंगला में बहने वाले प्राण को सूर्य कहते हैं। प्राणायाम और मुद्रादि के अभ्यास द्वारा कुण्डलिनी का उत्थान होकर सूर्य चंद्र का प्रवाह शिथिल बनकर अभ्यासु के प्राण वायु का सुषुम्णा में प्रवेश होता है। इस प्रकार की सूर्य चंद्र को एकत्र करने की कला को हठयोग कहते हैं। हठयोग की दूसरी मृदु, प्रक्रिया इस प्रकार है। 'हृदय में सूर्य का निवास स्थान है
और नासिका के बाहर द्वादश अंगुल पर चन्द्रमा का स्थान है। इनके आवागमन की प्रक्रिया को जो पुरुष योग कला के द्वारा देखता है वही यथार्थ देखता है'।२१
हठयोग के सप्तांग बताये गये हैं- १) षट्कर्म, २) आसन, ३) मुद्रा, ४) प्रत्याहार, ५) प्राणायाम, ६) ध्यान और ७) समाधि। योग शास्त्र में बताया गया है कि 'षट्कर्म द्वारा शरीर शोधन, आसन द्वारा दृढ़ता, मुद्रा द्वारा स्थिरता, प्रत्याहार द्वारा धीरता, प्राणायाम द्वारा लाघवता, ध्यान द्वारा आत्मा का प्रत्यक्षीकरण और समाधि द्वारा निर्लिप्तता तथा मुक्ति का लाभ होता है। २२ मानसिक और आध्यात्मिक लाभ के साथ ही साथ हठयोग के सप्तांग के साधन के साथ शारीरिक स्वास्थ्य लाभ भी प्राप्त होता है। हठयोग के अभ्यास में क्रियात्मक स्वरूप होने के कारण शास्त्रकारों ने गुरु के सान्निध्य का महत्त्व बताया है। उसी प्रकार साधना और साधना की प्रगति को गुप्त रखने का भी निर्देश है। इसलिए प्रायः साधक समाज से परे रहा करते थे। आधुनिक युग में भी इन तथ्यों का महत्त्व किसी भी मात्रा में कम नहीं हुआ है। हठयोग की प्रायोगिक क्रियाओं में केवल साहित्य का अवलंबन घातक सिद्ध हुआ है और साधना की प्रगति का विवेचन मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अहंकार की पुष्टि करता है। और भ्रष्ट होने का मार्ग प्रस्तर हो जाता है। आचार्यों ने बड़े ही स्पष्ट और विस्तृत रूप से सभी क्रियाओं का उल्लेख किया है। ध्यान प्रक्रिया में इन सभी क्रियाओं का अत्यन्त महत्वपूर्ण योगदान है। क्रियात्मक स्वरूप होने के कारण यह अधिक प्रचलित भी हो रहा है।
(४) राजयोग :- पतंजलि के योग शास्त्र कालान्तर में मंत्रयोग, लययोग, हठयोग का ही एक स्वरूप राजयोग के नाम से भी उपनिषदों में उपलब्ध होता है। योगतत्त्व उपनिषद् में मंत्र, लय, हठ और राजयोग इस प्रकार का वर्गीकरण उपलब्ध है।२३ स्मृति गन्थों में भी सभी प्रकार के योग-विधियों में राजयोग श्रेष्ठ माना है। योगशास्त्र में राजयोग का वर्णन इस प्रकार है- सृष्टि, स्थिति और लय का कारण अन्तःकरण ही है। उसके माध्यम से जिसका साधन किया जाता है उसे राजयोग कहते हैं। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार - ये चार अन्तःकरण है। अन्तःकरण रूपी कारण और जगत् रूपी कार्य दृश्य का कार्य-कारण संबंध है। दृश्य से द्रष्टा का संबंध होने पर सृष्टि होती है। चित्तवृत्ति का चांचल्य ही इसका कारण है। वृत्तिजयपूर्वक स्वरूप का प्रकाश प्राप्त करना राजयोग है। इसमें विचारशुद्धि की प्रधानता है। विचारशुद्धि की पूर्णता ही
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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