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________________ मन की एकाग्रता और तल्लीनता प्रस्थापित करना है। इसको चरम सीमा अजपा जप अथवा सोऽहं के स्वरूप में मानी जाती है। १७ (२) लययोग :- मंत्रयोग की ही श्रेणी में योग की एक साधना पद्धति का नाम लययोग है। लययोग की सभी क्रियाएँ कुण्डलिनी योग में पायी जाती हैं। इस योग में स्थूल एवं सूक्ष्म क्रियाओं द्वारा कुण्डलिनी उत्थान, षट्चक्र भेदन, आकाश इत्यादि व्योमपंचक, बिन्दु ध्यान सिद्धि आदि का आत्मसाक्षात्कार होता है। १८ यम, नियम, स्थूल क्रिया, सूक्ष्म क्रिया, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, लयक्रिया और समाधि लययोग के नौ अंग हैं।१९ स्थूल क्रिया और वायु प्रधान क्रिया को सूक्ष्म क्रिया कहते हैं। बिन्दुमय प्रकृति पुरुषात्मक ध्यान को बिन्दु ध्यान कहते हैं। यह ध्यान लययोग का परम सहायक तत्त्व है। लययोग अनुकूल अति सूक्ष्म सर्वोत्तम क्रिया जो केवल जीवन मुक्त योगियों के उपदेश से प्राप्त होती है, लय क्रिया कही जाती है। पतंजलि के अष्टांगमार्ग को लययोग में समाविष्ट कर लिया गया है। संक्षेप में प्रकृति-पुरुष के संयोग से निर्मित ब्रह्माण्ड और पिण्ड दोनो एक ही हैं। पिण्डज्ञान से ब्रह्माण्ड का ज्ञान होता है। गुरुकृपा की प्रबल शक्ति द्वारा पिण्ड का ज्ञान करने के बाद कौशल्यपूर्ण क्रिया द्वारा प्रकृति को पुरुष में लय करने को लययोग कहते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो जिस उपाय के द्वारा विषय-वासना-कामना - आसक्ति-संकल्प-विकल्प आदि की विस्मृति होती है, उस क्रिया को लययोग कहते हैं, लययोग सिद्धि के लिये खेचरी इत्यादि मुद्राओं का भी आलम्बन मान्य किया गया है। इसलिये चक्रों की जागृति के बाद जो ध्यान प्रक्रिया शुरू होती है, वह बिन्दु ध्यान के नाम से प्रचलित है और इसकी चरमसीमा समाधि महालय अथवा लयसिद्धियोग समाधि कहलाती है।२० लययोगसंहिता में विस्तार के साथ इन सब क्रियाओं का विवेचन किया गया है। (३) हठयोग :- मंत्र और लययोग की भाँति ही हठयोग साधना पद्धतियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय माना जाता है। हठयोग का तात्त्विक विवेचन न करते हुए प्रायः आसन प्राणायाम तक ही लोगों ने अपने को सीमित कर लिया है। और विपुल मात्रा में हठयोग के नाम से भ्रामक साहित्य और गुरु उपलब्ध होने लगे हैं। हठ शब्द का भी लौकिक भाषा में जिस अर्थ में प्रयोग होता है उसी स्वरूप में योग में, योग के साथ भी उसका अर्थ लोगों ने समझना शुरू कर दिया है। वास्तव में पतंजलि के योगसूत्र के भाँति ही हठयोग का सुसंगत और सुसंगठित साहित्य उपलब्ध है। (हठयोगप्रदीपिका, घेरण्ड संहिता, शिव संहिता, सिद्ध सिद्धान्तपद्धति, भक्ति साधक)। हठ शब्द 'ह' और 'ठ'हकार को सूर्य कहते हैं और ठकार को चन्द्रा सूर्य और चन्द्र के संयोग से जो जोग, वह हठयोग कहलाता है। कारण यह है कि इडा में संचार करने वाले प्राण को चन्द्र कहते हैं ध्यान परंपरा में साधना का स्वरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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