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भी साधना मार्ग के लिए एक अत्यन्त उपयोगी और प्रभावी तत्त्व माना गया है। ११ कर्म, ज्ञान के साथ-साथ भक्तियोग भी साधना का ही एक अंग है। वास्तव में कर्म, ज्ञान और भक्ति का अलग-अलग अध्ययन करना कठिन है। ये तीनों प्रायः एक साथ ही रहते हैं । १२ भागवत में नवधा भक्ति का उल्लेख मिलता है। १३ मानवीय जीवन की मनोवैज्ञानिक दृष्टि से आस्था और श्रद्धा इस वर्गीकरण में बड़े स्पष्ट रूप से अनुलक्षित होती हैं। इसी प्रकार वेदों में भी इसका उल्लेख मिलता है।
साधना पद्धतियों में सर्वाधिक प्रिय और प्रचलित प्रणाली योग की मानी जाती है। वैदिक साहित्य के बाद दर्शन युग में पतंजलि ने क्रमबद्ध योगशास्त्र का विवेचन किया। योग की सभी संकल्पनाएँ उपनिषदों में अनेक रूपों में दिखती हैं। कालान्तर में पतंजलि के योग के साथ-साथ मंत्रयोग, लययोग, हठयोग, राजयोग आदि का विवेचन उपलब्ध है।१४ योग के सर्वश्रेष्ठ विचारक पतंजलि के अनुसार चित्तवृत्तियों का निरोध करना योग का ध्येय है। इसके लिए योगशास्त्र में क्रियायोग और अष्टांगयोग का मार्ग प्रस्तुत किया है । अष्टांगयोग के बहिरंग और अन्तरंग ऐसे दो भेद माने जाते हैं। अन्तरंग योग में धारणा, ध्यान और समाधि का विवेचन है। योगशास्त्र क्रमिक गति से साधक का विकास करने में सहायक साधन है। और ध्यान उसमें एक महत्त्वपूर्ण अंग है। बिना ध्यान के योग साधना की चरम सिद्धि संभव नहीं है। पतंजलि के बाद योग के व्यवहार और प्रायोगिक स्वरूप के कारण योग के अनेक रूप विकसित हुए। कुछ प्रणालियों का उल्लेख हमने ऊपर किया है। प्रस्तुत अध्ययन में साधना पद्धति की दृष्टि से यह विवेचन उपयोगी है। इन अलग-अलग सम्प्रदायों के विकसित होने का कारण मानवीय स्वभाव की विभिन्नता है । और साधकों में अपनी अभिरुचि और आवश्यकतानुसार विशिष्ट प्रणाली विकसित हुई। कुछ प्रणालियों का वर्णन निम्न प्रकार से है
(१) मंत्रयोग :- मंत्र योग में शास्त्रोक्त उक्ति के अनुसार जप अनुसंधान और आत्मानुसंधान से नाममंत्र के जप से भगवान् के रूप का ध्यान करते हुए चित्तवृत्ति का निरोध करके मुक्ति की ओर अग्रसर होने वाले मार्ग को मंत्रयोग कहते हैं । १५ मंत्रयोग का आधार साधक अपनी अभिरुचि के अनुसार अपने इष्ट देव का निरंतर स्मरण करने के लिए आधार के रूप में लेता है। संसार की सभी साधना पद्धतियों में मंत्रयोग का उपयोग बड़े विस्तृत स्वरूप से किया जाता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से साधक स्वयं को अपने इष्ट देव से संबंधित रखने के लिए एक आलम्बन का आधार लेता है और निरंतर उसका ध्यान करता रहता है। इसे ही जप योग का नाम दिया गया है । और मंत्रयोग के महत्त्वपूर्ण अंगों में भक्ति का स्थान श्रेष्ठ माना जाता है। विचारों की पवित्रता और आत्मनिरीक्षण भी मंत्रयोग का एक अपरिहार्य अंग है, १६ जप के अनेक प्रकार माने जाते हैं। सामान्यतः सभी का ध्येय
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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