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________________ विभाजित किया गया है- एक आत्मवादी दर्शन है जिनमें वैदिक दर्शनों तथा जैन और बौद्ध दर्शनों का समावेशन है। दूसरे अनात्मवादी दर्शन हैं- जिनके अंतर्गत चार्वाक दर्शन सामान्यतः आत्मवादी दर्शन जीवात्मा के पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं। पुनर्जन्म के आधार रूप में 'कर्मफल' की संकल्पनाएं मानी गई हैं। विभिन्न दार्शनिक मान्यताओं के अनुसार कर्म के अनेक सूक्ष्म-स्थूल-शुभाशुभ आदि भेद-प्रभेद किए गए हैं, जिनके अनुसार कर्मफल की असंख्य कोटियां कल्पित की गई हैं। कर्मफल के परिणामस्वरूप ही जीवात्मा जन्म-मरण के चक्र में परिभ्रमण करता है और नाना प्रकार के शरीर धारण कर, सुख-दुःखात्मक फलों का भोग करता है। किन्तु सामान्यतः यह माना जाता है कि जन्ममरण के परिभ्रमण में जीवात्मा आधि, व्याधि, उपाधि आदि नाना प्रकार के दुःख उठाता है। इन दुःखों से मुक्ति पाने के लिए ही नाना प्रकार की धार्मिक साधना पद्धतियों का आविष्कार किया गया है। यहां हम प्रमुख भारतीय साधना पद्धतियों का एक समुचित आकलन करके यह देखना चाहते हैं। साधना 'सिद्ध' धातु अर्थात् शोधन या जीतना अर्थ में प्रयुक्त हुई है, और उसमें 'णिच्' और 'युज' से संस्कारित होकर साधना शब्द विकसित हुआ है। इसमें सिद्धि, आराधना, उपासना और तुष्टिकरण का भाव होता है। २ मानव कर्म क्षय और पुरुषार्थ के लिए साधना मार्ग का अवलम्बन करता है। साधना प्रक्रिया में दृष्टि अन्तर्मुखी बनती है। यह अंतर्मुखी दृष्टि ही ध्यान अर्थात् मानसिक एकाग्रता की ओर संप्रेषित करती है। प्राचीन वैदिक ग्रन्थों में जिज्ञासा वृत्ति का बोध होता है। इसके फलस्वरूप मानव के मन में आत्म तत्त्व और परमात्म तत्त्व को जानने की जिज्ञासा खड़ी हुई। ऋग्वेद और यजुर्वेद में अनेक तत्त्वों की उपासना का भी उल्लेख मिलता है। भगवत् गीता में इस उपासना पद्धति का स्वरूप यज्ञ के रूप में दिखता है जैसा कि हमने ऊपर निर्देश किया है। सभी वैदिक साहित्य में साधना-कर्म यज्ञ के स्वरूप द्वारा समझे जाते हैं।५ वैदिक काल में कर्म को भी साधना का मार्ग मान लिया गया और उसे कर्मयोग के स्वरूप में साधना पद्धति का आकार मिल गया। अतः प्रत्येक कर्म यज्ञ कर्म होने लगा। और इसमें सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य आदि का समावेश कर लिया गया। इसी प्रकार जीवन को एक निश्चित दिशा देने के लिए अहिंसा इत्यादि संकल्पनाएं भी महत्त्वपूर्ण स्थान पर आ गई। यजुर्वेद में अहिंसा की परिभाषा बहुत ही व्यापक स्वरूप में उपलब्ध है। इसी प्रकार अथर्ववेद और ऋग्वेद में भी बड़े व्यापक स्वरूप में अहिंसा तत्त्व की मीमांसा की गई है। अहिंसा के साथ-साथ ब्रह्मचर्य का भी महत्त्व प्राचीन आचार्यों ने बड़े स्पष्ट रूप से प्रस्थापित किया है। अहिंसा ब्रह्मचर्य के साथ-साथ कर्मयोग का भी बड़ा महत्त्व रहा है और इसमें साधना का स्वरूप धारण कर लिया है। इसी प्रकार ज्ञानयोग ध्यान परंपरा में साधना का स्वरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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