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________________ अध्याय १ ध्यान परंपरा में साधना का स्वरूप प्राचीनकाल से ही भारत धर्म प्रधान देश रहा है। यहाँ जीवन के उद्देश्य के रूप में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष नामक चार पुरुषार्थों की संकल्पना की गई है। इन पुरुषार्थों में भी धर्म को ही प्रथम स्थान पर रखा गया है। शेष तीनों के मूल में धर्म की ही स्थापना है। _ 'धर्म' शब्द के व्युत्पत्तिमूलक अर्थ में 'धारयति इति धर्मः' बताया गया है। अर्थात जो धारण करे वह धर्म है। एक दूसरे स्थान पर भी यह कहा गया है कि "जो दुर्गति में पड़े हुए आत्मा को धारण करके रखता है, या जो धारण किया जा सकता है वह धर्म है।" विभिन्न धार्मिक शास्रों में, धर्म शब्द की विभिन्न अर्थों में व्याख्या की है। इसीलिए सामान्य भाषा में धर्म शब्द गुण, स्वभाव, कर्तव्य, आस्था, विश्वास, जप, तप, दान, यज्ञ आदि अनेकानेक अर्थों में प्रयोग किया जाता है। भारत में धर्म का संबंध जीवन के प्रत्येक आचार-विचार से जुड़ा हुआ है। भारतीय चिंतन धारा में धर्माचार का आधार 'दर्शन' है। दर्शन की व्याख्या भी अनेकानेक विधियों से की गई है। 'दर्शन' शब्द की व्युत्पत्ति दृश् धातु से की गई है। हमारे यहाँ धार्मिक जीवन के मार्गदर्शन के लिए दार्शनिक विवेचन हुआ है। धर्म के क्षेत्र में उत्पन्न होनेवाली जन्म-मृत्यु, पाप-पुण्य, आत्मा-परमात्मा, जीव-जगत् आदि से संबंधित जिज्ञासाओं के समाधान के रूप में किये गए चिंतन को दर्शन कहा जा सकता है। इसलिए भारतीय चिंतनधारा में धर्म तथा दर्शन इतने संयुक्त हैं, कि उन्हें नितांत रूप से अलगअलग करके नहीं देखा जा सकता। यहां यह उल्लेखनीय है कि दर्शन के लिए, अंग्रेजी का 'फिलासफी' शब्द ठीक-ठीक पर्याय नहीं कहा जा सकता। पाश्चात्य विचारधारा में फिलासफी (दर्शन) का स्वरूप भारतीय दर्शन से नितांत भिन्न माना जाता है। भारतीय दर्शनों में प्रमुख रूप से वैदिक (न्याय, योग, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसा, वेदांत आदि आस्तिक दर्शन) और अवैदिक (चार्वाक,जैन, बौद्ध आदि नास्तिक दर्शन)* समाहित किये जाते हैं। पुनर्जन्म की संकल्पना की दृष्टि से इन दर्शनों को दो भागों में • चिंतन करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि, जैन बौद्ध आदि दर्शनों को कैसे नास्तिक मानें? जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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