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________________ सकाम मरण भी इसे कहते हैं। इसकी प्राप्ति विषयादि से विरक्त समाधिस्थ विज्ञों को इच्छापूर्वक होती है। तथा मृत्यु समय में भी अन्य समयों की तरह प्रसन्न ही रहते हैं। २. श्रुत चरित्र-धर्म में स्थित रहते हुए निर्मोह भाव में मृत्यु। समय - काल का वह अविभाज्य अंश जिसका कभी भी विभाग न किया जा सके। (काल का सूक्ष्मतम अविभाज्य अंश।) समवसरण - तीर्थकर परिषद अथवा वह स्थान जहां तीर्थंकर का उपदेश होता है। सम्यक्त्व - जीवादि नवतत्त्वों के श्रद्धान करने को सम्यक्त्व कहते हैं। सम्यक्त्व मोहनीय - जिसका उदय तात्त्विक रुचि का निमित्त होकर भी औपशमिक और क्षायिक भाववाली तत्त्वरुचि का प्रतिबंध करता है, उसे सम्यक्त्व मोहनीय कहते हैं। यद्यपि यह कर्म शुद्ध होने के कारण तत्त्वरुचि रूप सम्यक्त्व में व्याघात नहीं पहुंचाता, परंतु आत्मस्वभाव रूप औपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व नहीं हो पाता है और सूक्ष्म पदार्थों के विचारने में शंका हुआ करती है, जिससे सम्यक्त्व में मलीनता आ जाती है। सविपाक निर्जरा - यथाक्रम से परिपाक काल को प्राप्त और अनुभव के लिए उदयावली के स्रोत में प्रविष्ट हुए शुभाशुभ कर्मों का फल देकर निवृत होना। सर्वतोभद्र प्रतिमा - सर्वतोभद्र प्रतिमा की दो विधियों का वर्णन उपलब्ध होता है। एक विधि के अनुसार क्रमशः दशो दिशाओं की ओर अभिमुख होकर एक-एक अहोरात्र का कायोत्सर्ग किया जाता है। भ. महावीर ने इसे किया था। दूसरी विधि के अनुसार इसके लघु और महा ये दो भेद हैं। सौंषधि- तपस्या विशेष से प्राप्त होने वाली एक दिव्य शक्ति। सौषधि लब्धि के धारक तपस्वी के शरीर के समस्त अवयव, मल, मूत्र, नख, केश, दांत, थूक आदि से सुगंध आती है तथा उसके स्पर्श से रोग शांत हो जाते हैं। इस लब्धिधारी का समूचा शरीर ही जैसे पारस होता है, अमृतमय होता है। जहां से भी, जो भी वस्तु लो तो वह तुरंत चमत्कार दिखलाती है। वर्षा का बरसता हुआ व नदी का बहता हुआ पानी और पवन तपस्वी के शरीर से संस्पृष्ट होकर रोग नाशक व विष संहारक हो जाते हैं। विष-मिश्रित पदार्थ यदि उनके पात्र या मुंह में आता है तो वह भी निर्विष हो जाता है। उनकी वाणी की स्मृति भी महाविष के शमन की हेतु बनती है। उनके नख, केश, दांत आदि शारीरिक वस्तुएं भी दिव्य औषधि का काम करती है। सागरोपम - दस कोड़ा कोड़ी पल्योपम का एक सागरोपम होता है। साता वेदनीय - जिस कर्म के उदय से आत्मा को इंद्रिय विषय संबंधी सुख का अनुभव हो, उसे सातावेदनीय कहते हैं। सादि अनंत - जो आदि सहित होकर भी अनंत है। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग ५६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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