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सादिबंध - वह बंध जो रुककर पुनः होने लगता है।
सादि सान्त - जिस बंध का उदय बीच में रुककर पुनः प्रारंभ होता है और कालान्तर में पुनः व्युच्छिन्न हो जाता है।
सादि संस्थान - शरीर में नाभि से ऊपर के अवयव हीन-पतले और नाभि से नीचे के अवयव पूर्ण मोटे हों उसे सादि-संस्थान कहते हैं। न्यग्रोध-परिमंडल-संस्थान से विपरीत शरीर अवयवों की आकृति इस संस्थान वालों की होती है।
साधारण वनस्पति (निगोद) - साधारण वनस्पति को ही निगोद कहते हैं। एक शरीर का आश्रय करके अनंत जीव जिसमें रहे अर्थात् एक ही शरीर को आश्रित करके जिन जीवों के आहार, आयु, श्वासोच्छ्वास आदि समान हो, उन्हें निगोद कहते हैं। जैसे जमीकंद, कंदमूल, आलू, रतालू, पिंडालू, मूली, गाजर, लहसून, प्याज (कांदा), कोमल फल, अंकुरे के वाला धान्य, (सेवार) (काइ) इत्यादि। निगोद के दो प्रकार हैं - १) व्यवहार राशि, २) अव्यवहार राशि।
सान्निपातिक भाव - दो या दो से अधिक मिले हुए भाव।
सान्तर स्थिति - प्रथम और द्वितीय स्थिति के बीच में कर्म दलिकों से शून्य अवस्था।
सामायिक - राग द्वेष के अभाव को समभाव कहते हैं और जिस संयम से समभाव की प्राप्ति हो, अथवा ज्ञान-दर्शन-चरित्र को सम कहते हैं और उनकी आय-लाभ प्राप्ति होने को समाय तथा समाय के भाव को अथवा समाय को सामायिक कहा जाता है।
सास्वादान सम्यक्त्व - उपशम सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्व के अभिमुख हुआ जीव जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं करता, तब तक के उसके परिणाम विशेष को सास्वादान सम्यक्त्व कहते हैं। सास्वादान को सासादान भी कहते हैं।
सासादान सम्यग्दृष्टि - जो औपशामिक सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबंधी कषाय के उदय से सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्व की ओर अभिमुख हो रहा है, किंतु अभी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हुआ उतने समय के लिए वह जीव सासादान सम्यग्दृष्टि कहलाता है।
सिद्ध - कर्मों को सर्वथा क्षय कर जन्म मरण से मुक्त होने वाली आत्मा। सिद्धि - संपूर्ण कर्मों के क्षय से प्राप्त होने वाली अवस्था।
सुषम - अवसर्पिणी काल का द्वितीय आरा जिसमें केवल सुख ही होता है, दुःख की मात्रा किंचित भी नहीं होती।
सुषम-दुःषम - अवसर्पिणी काल का तीसरा आरा, जिसमें सुख की मात्रा अधिक होती है, और दुःख की मात्रा कम होती है।
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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