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________________ संसारी जीव - जो अपने यथायोग्य द्रव्य प्राणों और ज्ञानादि भाव प्राणों से युक्त होकर नरकादि चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। उन्हें संसारी जीव कहते हैं। संहनन - जिस कर्म के उदय से शरीर में हड्डियों की संधियां दृढ़ होती हैं उसे संहनन कहते हैं। हड्डियों की रचना-विशेष को संहनन कहते हैं। इसके छह भेद हैं - १) वज्र ऋषभ नाराच, २) ऋषभ नाराच, ३) नाराच, ४) अर्द्ध नाराच, ५) कीलिका, ६) छेवट्ट। ___ सकल प्रत्यक्ष - संपूर्ण पदार्थों को उनकी त्रिकालवर्ती पर्यायों सहित युगपत् जाननेवाला ज्ञान। सत्ता - बंधे हए कर्म का अपने स्वरूप को न छोड़कर आत्मा के साथ लगे रहना सत्ता कहलाती है। अथवा - बंध समय का संक्रमण समय से लेकर जब तक उन कर्म परमाणुओं का अन्य प्रकृति रूप से संक्रमण नहीं होता या उनकी निर्जरा नहीं होती तब तक उनका आत्मा से लगे रहना।। सप्रतिकर्म - अनशन की अवस्था में उठना, बैठना, सोना, चलना आदि शारीरिक क्रियाएं करना। ये क्रियाएं भक्त-प्रत्याख्यान अनशन की अवस्था में ही होती है, शेष में नहीं। समचतुरस्त्र संस्थान - सम का अर्थ समान, चतुः का अर्थ चार और अस्र का अर्थ कोण होता है। अर्थात् पालथी मारकर बैठने से जिस शरीर के चारों कोण समान हों, अर्थात् आसन और कपाल का अंतर, दोनों घुटनों का अंतर, दाहिने कंधे और बांये जानु का अंतर, बांये कंधे और दाहिने जानु का अंतर, समान हो, उसे समचतुरस्र कहते हैं। समाचारी - साधुओं के लिए आवश्यक करणीय क्रियाएं व व्यवहार। समिति - संयम के अनुकूल प्रवृत्ति को समिति कहते हैं। वे पांच हैं। १) ईर्याज्ञान, दर्शन व चरित्र की अभिवृद्धि के निमित्त युग परिणाम भूमि को देखते हुए एवं स्वाध्याय व इंद्रियों के विषयों का वर्णन करते हुए चलना। २) भाषा-भाषा दोषों का परिहार करते हुए पाप रहित एवं सत्य, हित, मित और असंदिग्ध बोलना। ३) एषणागवेषणा, ग्रहण और ग्रास संबंधी एषणा के दोषों का वर्जन करते हुए आहार-पानी आदि औधिक उपधि और शय्या, पाट आदि औपग्रहिक उपधि का अन्वेषण। ४) आदाननिक्षेप-वस्त्र, पात्रादि उपकरणों को सावधानीपूर्वक लेना व रखना। ५) उत्सर्ग-मल, मूत्र, खेल, थूक, कफ आदि का विधिपूर्वक, पूर्वदृष्ट एवं प्रमार्जित निर्जीव भूमि पर विसर्जन करना। समुद्घात - मूल शरीर को छोड़े बिना ही आत्मा के प्रदेशों का बाहर निकलना। समाधि-मरण - मृत्यु के सन्निकट आ जाने पर चारों प्रकार के आहार का त्याग करके आत्मध्यान करते हुए प्रसन्नतापूर्वक प्राणों का त्याग करना। १. पंडित मरण और जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व ५६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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