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संक्रमण - एक कर्म रूप में स्थित प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश का अन्य सजातीय कर्म रूप में बदल जाना अथवा वीर्य विशेष से कर्म का अपना ही दूसरी सजातीय कर्म प्रकृति स्वरूप को प्राप्त कर लेना।
संख्या - भेदों की गणना को संख्या कहते हैं।
संघ - गण का समुदाय-दो से अधिक आचार्यों का शिष्य समूह संघ कहलाता है। श्रावकों के समूह को भी संघ कहते हैं।
संज्वलन कषाय - जिस कषाय के उदय से आत्मा को यथाख्यात चरित्र की प्राप्ति न हो, अर्थात् जो कषाय परिषह तथा उपसगों के द्वारा श्रमण धर्म के पालन करने को प्रभावित करे, असर डाले, उसे संज्वलन कहते हैं। यह कषाय सर्वविरति चरित्र पालन करने में बाधा डालती है।
संज्ञा - नोइंद्रियावरण कर्म के क्षयोपशम या तज्जन्य ज्ञान को अथवा अभिलाषा को संज्ञा कहते हैं।
संज्ञी - बुद्धिपूर्वक इष्ट-अनिष्ट में प्रवृत्ति-निवृत्ति करने वाले जीव। अथवा सम्यग्ज्ञान रूपी संज्ञा जिनको हो, उन्हें संज्ञी कहते हैं। जिनके लब्धि या उपयोग रूप मन पाया जाए उन जीवों को संज्ञी कहते हैं।
संथारा - अंतिम समय में आहारादि का परित्याग करना।
संभव सत्ता - किसी कर्म प्रकृति की अमुक समय में सत्ता न होने पर भी भविष्य में सत्ता की संभावना मानना।
संयम - सावध योगों-पापजनक प्रवृत्तियों से उपरत हो जाना; अथवा पापजनक व्यापार - आरंभ - समारंभ से आत्मा को जिसके द्वारा संयमित-नियमित किया जाता है उसे संयम कहते हैं अथवा पांच महाव्रतों रूप यमों के पालन करने या पांच इंद्रियों के जय को संयम कहते हैं।
संवर - आस्रव के निरोध को संवर कहते हैं। आते हुए नये कर्मों को रोकने वाले आत्मा के परिणाम को भाव संवर और कर्मपुद्गलों के आगमन के रुक जाने को द्रव्य संवर कहते हैं।
संवेध - परस्पर एक समय में अविरोध रूप से मिलना।
संलेखना - शारीरिक तथा मानसिक एकाग्रता से कषायादि का शमन करते हुए तपस्या करना।
संस्थान - जिस कर्म के उदय से शरीर के जुदे-जुदे शुभ या अशुभ आकार बने, उसे संस्थान कहते हैं। इसके छः भेद हैं - १) समचतुरस्र संस्थान, २) न्यग्रोध-परिमंडल संस्थान, ३) सादि संस्थान, ४) कुब्न संस्थान, ५) वामन संस्थान, ६) हुंड संस्थान। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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