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क्षपक श्रेणि - मोहनीय कर्म का क्षय करता हुआ आत्मा जिस श्रेणि-अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म संपराय और क्षीणमोह इन ४ गुण रूप सोपान पर आरूढ होता है, वह क्षपक श्रेणि है।
क्षमा - क्रोध की उत्पत्ति के निमित्तभूत बाह्य कारण के प्रत्यक्ष में होने पर भी किंचित् मात्र भी क्रोध न करना क्षमा है।
..क्षय - कर्मों की आत्यंतिक निवृत्ति अर्थात पूर्ण रूप से नष्ट हो जाना क्षय है। अथवा -विच्छेद होने पर पुनः बंध की संभावना न होना।
क्षयोपशम - वर्तमान काल में सर्वघाती स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय और आगामी काल की दृष्टि से उन्हीं का सद्अवस्थी रूप उपशम व देशघाती स्पर्धकों का उदय क्षयोपशम है। अर्थात् कर्म के उदयावली में प्रविष्ट मन्दरस स्पर्धक का क्षय और अनुदयमान रस स्पर्धक की सर्वघातिनी विपाकशक्ति का निरोध ।
क्षायिक भाव - कर्म के आत्यन्तिक क्षय से प्रगट होने वाला भाव।
क्षायिक सम्यक्त्व - अनन्तानुबंधी कषाय चतुष्क और दर्शनमोहत्रिक इन सात प्रकृतियों के क्षय से आत्मा में तत्त्व रुचि रूप प्रगट होने वाला परिणाम ।
क्षायिक सम्यग्दृष्टि - वेदक सम्यग्दृष्टि होकर प्रशम संवेद आदि से सहित होते हुए जिनेंद्र भगवान की भक्ति भाव के प्रभाव से जिस की भावनाएं वृध्दिगत हुई हैं, ऐसा मानव जहाँ केवलि भगवान विराजमान हैं, वहाँ मोह की क्षपणा को प्रारंभ करता है, पर निष्ठापक वह चारों गतियों में से किसी भी गति में हो सकता है; अर्थात् सातों प्रकृतियों का पूर्णतया क्षय करके सम्यक्त्व प्राप्त करने वाले जीव ।
क्षायोपशमिक ज्ञान - मतिज्ञानावरणादि और वीर्यांतराय कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभावी क्षय से तथा अनुदय प्राप्त उन्हीं के सदवस्था रूप उपशम से होने वाले मतिज्ञान आदि ज्ञानों को क्षायोपशमिक ज्ञान कहा जाता है । अथवा - अपने -अपने आवरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाला ज्ञान ।
क्षायोपशमिक भाव - कमों के क्षयोपशम से प्रकट होने वाला भाव ।
क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि - मोहनीय कर्म की प्रकृतियों में से क्षय योग्य प्रकृतियों के क्षय और शेष रही हुई प्रकृतियों के उपशम करने से सम्यक्त्व प्राप्त करने वाले जीव को कहते हैं।
क्षायोपशमिक सम्यक्त्व - मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के क्षय तथा उपशम से और सम्यक्त्व मोहनीय के उदय से आत्मा में होने वाले परिणाम को क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं।
क्षीण कषाय - जिसके सभी कषाय नष्ट हो चुके हैं, वह स्फटिक मणिमय पात्र में स्थित जल के समान निर्मल मन की परिणति से सहित हुआ है, वह क्षीण कषायी है। ५५८
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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