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________________ शिक्षा व्रत पुनः पुनः सेवन करने योग्य अभ्यास प्रधान व्रतों को शिक्षा व्रत कहते हैं। वे चार हैं - १ ) सामयिक व्रत, २) देशावकासिक व्रत, ३) पौषधोपवास व्रत और ४) अतिथि संविभाग व्रत । शीर्ष प्रहेलिका- चौरासी लाख शीर्ष प्रहेलिकांग की एक शीर्ष प्रहेलिका होती है। शीर्ष प्रहेलिकांग - चौरासी लाख चूलिका का एक शीर्ष प्रहेलिकांग कहलाता है। शुक्ल ध्यान- ध्यान की परम उज्ज्वल, निर्मल दशा। जिस ध्यान में बाह्य विषयों का संबंध होने पर भी मन उनकी ओर नहीं जाता, एवं पूर्ण वैराग्य दशा में रमता है। इस ध्यान की स्थिति में यदि कोई साधक के शरीर पर प्रहार करें, छेदन-भेदन करें, तब भी उसके मन में संक्लेश पैदा नहीं होता। शरीर को पीड़ा होने पर भी उस पीड़ा की अनुभूति नहीं होती । देह होने पर भी विदेह - मुक्त-सा अनुभव करे। स्वरूप की दृष्टि से उसके ४ भेद हैं। १) पृथक्त्व वितर्क सविचार, २) एकत्व वितर्क सविचार, ३) सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती, ४) समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति । शुक् लेश्या - शंख के समान श्वेतवर्ण के लेश्या जातीय पुद्गलों के सम्बन्ध से आत्मा के ऐसे परिणामों का होना जिनसे कषाय उपशान्त रहती है, वीतराग-भाव सम्पादन करने की अनुकूलता आ जाती है। श्रुतज्ञान - जो ज्ञान श्रुतानुसारी है जिसमें शब्द और अर्थ का सम्बन्ध भासित होता है, जो मतिज्ञान के बाद होता है तथा शब्द और अर्थ की पर्यालोचना के अनुसरणपूर्वक इंद्रिय व मन के निमित्त से होने वाला है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। श्रुतअज्ञान - मिथ्यात्व के उदय से सहचरित श्रुतज्ञान । श्रुतज्ञानावरण कर्म - श्रुतज्ञान का आवरण करने वाला कर्म । श्रेणि- सात राजू लंबी आकाश के एक-एक प्रदेश की पंक्ति । शैलेशी अवस्था - चौदहवें गुणस्थान में जब मन, वचन और काय योग का निरोध हो जाता है, तब उसे शैलेशी अवस्था कहते हैं। इसमें ध्यान की पूर्णता होने से मेरू सदृश्य निष्प्रकम्पता व निश्चलता आती है। अथवा - मेरू पर्वत के समान निश्चल अथवा सर्व संव रूप योग निरोध की अवस्था । शैलेशीकरण - वेदनीय, नाम और गोत्र इन तीन कर्मों की असंख्यात गुणश्रेणि से और आयुकर्म की यथास्थिति से निर्जरा करना । श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका - आठ उत्श्लक्ष्णिका की एक श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका होती है। श्वासोच्छ्वास - शरीर से बाहर की वायु को नाक के द्वारा अंदर खींचना और अन्दर की हवा बाहर निकालना श्वासोच्छ्वास कहलाता है। श्वासोच्छ्वास काल - रोगरहित निश्चिन्त तरुण पुरुष के एक बार श्वास लेने और त्यागने का काल । जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only ५५७ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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