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लब्धि त्रस - वे जीव जिन्हें त्रस नामकर्म का उदय होता है और जो चलते-फिरते भी हैं।
लब्धि पर्याप्त - जो जीव अपनी-अपनी योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करके मरते हैं, पहले नहीं; वे लब्धि पर्याप्त है।
लब्ध पर्याप्त - वे जीव जो स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण किए बिना ही मर जाते हैं। लव - सात स्तोक का समय।
लवण समुद्र - जैन भूगोल के अनुसार मनुष्य क्षेत्र अढ़ाई द्वीपों तक फैला हुआ है। मध्य में जम्बूद्वीप है जो एक लाख योजन लम्बा, एक लाख योजन चौड़ा वृत्ताकार है। उसके चारों ओर लवण समुद्र है।
___ लाभांतराय - दाता उदार हो, दान की वस्तु विद्यमान हो, लेने वाला भी कुशल हो, फिर भी जिस कर्म के उदय से इष्ट वस्तु की प्राप्ति न हो, उसे लाभांतराय कहते हैं।
लीख - भरत और ऐरवत क्षेत्र के मनुष्यों के आठ केशारों की लीख होती है।
लेश्या - एक प्रकार का पौद्गलिक पर्यावरण है। जीव से पुद्गल और पुद्गल से जीव प्रभावित होते हैं। जीव को प्रभावित करने वाले पुद्गलों के अनेक वर्ग हैं, उनके एक वर्ग का नाम लेश्या है। लेश्या शब्द का अर्थ आभा, कांति, प्रभा, छाया है। छाया पुद्गलों से प्रभावित होने वाले जीव परिणामों को भी लेश्या कहा जाता है। शरीर के वर्ण और आभा को लेश्या और विचार को भावलेश्या कहा है। अथवा - जीव के ऐसे परिणाम जिनके द्वारा आत्मा कर्मों से लिप्त हो अथवा कषायोदय से अनुरंजित योग प्रवृत्ति।
लोक - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, पुद्गल और जीव की अवस्थिति।
लोभ - ममता- परिणामों को लोभ कहते हैं। धन आदि की तीव्र आकांक्षा या गृद्धता बाह्य पदार्थों में 'यह मेरा है' इस प्रकार की अनुराग बुद्धि, ममता आदि रूप परिणामा
शय्यातर - साधु जिस व्यक्ति के मकान में सोते हैं, वह शय्यातर कहलाता है।
शल्य - जिससे पीड़ा हो। वह तीन प्रकार का है। १) मायाशल्य-कपटभाव रखना। २) निदान शल्य - राजा, देवता आदि की ऋद्धि को देखकर या सुनकर मन में इस प्रकार दृढ़ निश्चय करना कि, मुझे भी मेरे तप, जप का फल हो तो, इस प्रकार की ऋद्धियां प्राप्त हों। ३) मिथ्यादर्शन शल्य - विपरीत श्रद्धा का होना।
शलाकापल्य - जिस पल्य को एक-एक साक्षीभूत सरसों के दाने से भरा जाता है. उसे शलाकापल्य कहते हैं।
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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