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ऋषभ नाराच - इस हड्डियों की रचना-विशेष में दोनों तरफ हड्डी का मर्कटबंध हो, तीसरी हड्डी का वेष्टन भी हो, लेकिन तीनों को भेदनेवाली हड्डी की कीली न हो, उसे ऋषभ नाराच संहनन कहते हैं। ___ऋद्धि गारव - धन, सम्पत्ति, ऐश्वर्य को ऋद्धि कहते हैं और उससे अपने को महत्त्वशाली समझना ऋद्धि गारव है।
रूपातीत ध्यान - अपने चित्त को अन्य समस्त चितवनों से हटाकर किसी एक पदार्थ से बद्धमूल करना; बिना किसी आलम्बन के किसी पदार्थ का ध्यान, जिसमें शुद्ध, कर्ममल रहित, अमृत और ज्ञानमय शरीर से संयुक्त चेतन और आनंद स्वरूप आत्मा का स्मरण होता है।
रूपस्थ ध्यान - वस्तुविरक्त ध्यान, स्वसंवेद्य ध्यान, जिन लोकातिशायी आत्मस्वरूप में जिनेन्द्र अवस्थित हैं उसका ध्यान; इसमें वस्तु का आलम्बन सर्वथा छूट जाता है; यह दो प्रकार का है :- १) परगत = परमेष्टि का ध्यान, २) स्वगत = निजात्मा का ध्याना
रोचक सम्यक्त्व - जिनोक्त क्रियाओं में रुचि को रोचक सम्यक्त्व कहते हैं।
लगुडासन - पैर की एड़ी और मस्तक का शिखास्थान पृथ्वी पर लगाकर समस्त शरीर धनुष की भांति अधर रखना लगुडासन है।
लघु सर्वतोभद्र प्रतिमा - अंकों की स्थापना का वह प्रकार जिसमें सब ओर से समान योग आता है, उसे सर्वतोभद्र कहा जाता है। इस तप का उपवास से प्रारंभ होता है और क्रमशः बढ़ते हुए द्वादश भक्त (५ उपवास) तक पहुंच जाता है। दूसरे क्रम में मध्य के अंक को आदि अंक मानकर चला जाता है और पांच खंडों में उसे पूरा किया जाता है। आगे यही क्रम चलता है। एक परिपाटी का कालमान ३ महिने १० दिन है। इसकी ४ परिपाटियां होती हैं। इसका क्रम यंत्र के अनुसार चलता है।
___ लघुसिंह निष्क्रीडित तप - तप करने का एक प्रकार। सिंह गमन करते हुए जैसे पीछे मुड़कर देखता है, उसी प्रकार तप करते हुए आगे बढ़ना और साथ ही पीछे किया हुआ तप भी करना। यह लघु और महा दो प्रकार का होता है। प्रस्तुत क्रम में अधिकाधिक नौ दिन तपस्या होती है और फिर उसी क्रम से तप का उतार होता है। समग्र तप में ६ महिने और ७ दिन का समय लगता है। इस तप की भी चार परिपाटी हैं। इसका क्रम यंत्र के अनुसार चलता है।
लता - चौरासी लाख लतांग के समय को एक लता कहते हैं। लतांग - चौरासी लाख पूर्व का एक लतांग होता है।
लब्धि - ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष को लब्धि कहते हैं। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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