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वैक्रिय वर्गणा - वे वर्गणाएं जिनसे वैक्रिय शरीर बनता है।
वैक्रिय शरीर - जिस शरीर के द्वारा छोटे-बड़े, एक-अनेक, विविध-विचित्र रूप बनाने की शक्ति प्राप्त हो तथा जो शरीर वैक्रिय शरीर वर्गणाओं से निष्पन्न हो।
वैयावृत्य - आचार्य, उपाध्याय, शैक्ष, ग्लान, तपस्वी, स्थविर, साधर्मिक, कुल, गण और संघ की आहार आदि से सेवा करना।
व्यंजनावग्रह - अव्यक्त ज्ञान रूप अर्थावग्रह से पहले होने वाला अत्यन्त अव्यक्त ज्ञाना
व्यवहार राशि - जिस जीव ने एक बार भी निगोद को छोड़कर त्रस आदि की गति पाई हो, उसे व्यवहार राशि कहते हैं।
व्यवहार सम्यक्त्व - कुगुरु, कुदेव और कुमार्ग को त्यागकर सुगुरु, सुदेव और सुमार्ग को स्वीकार करना, उनकी श्रद्धा करना, व्यवहार सम्यक्त्व कहलाता है।
रजोहरण - जैन मुनियों का एक उपकरण, जो कि भूमि-प्रमार्जन आदि कामों में आता है।
रस - जिस कर्म के उदय से शरीर में तिक्त, मधुर आदि शुभाशुभ रसों की उत्पत्ति हो, उसे रस कहते हैं।
रस गारव- मिष्ट भोजन करने का गर्व करना।
रस घात - बंधे हुए ज्ञानावरणादि कमों के फल देने की तीव्र शक्ति को अपवर्तनाकरण के द्वारा मंद कर देना...)
रस बंध - जीव के द्वारा ग्रहण किए हुए कर्म-पुद्गलों में फल देने के तरतमभाव का होना रस-बंध कहलाता है।
रसविपाकी - रस के आश्रय अर्थात् रस (अनुभाग) की मुख्यता से निर्दिश्यमान विपाक जिस प्रकृति का होता है, उस प्रकृति को रस विपाकी कहते हैं।
रसाणु - पुद्गल द्रव्य की शक्ति का सबसे छोटा अंश। रसोदय - बंधे हुए कर्मों का साक्षात् अनुभव करना।
राजू - प्रमाणांगुल से निष्पन्न असंख्यात कोटा-कोटी योजन का एक राजू होता है। अथवा - श्रेणी के सातवें भाग को राजू कहते हैं।
ऋजुमति - पर के मन में स्थित मन, वचन, काय से किए गए अर्थ के ज्ञान से निवर्तित सरल बुद्धि ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान है।
ऋजुता - कपट से रहित मन, वचन, काय की सरल प्रवृत्ति ऋजुता कहलाती है।
ऋजुसूत्र - तीनों कालों के पूर्वापार विषयों को छोड़कर जो केवल वर्तमानकालभावी विषय को ग्रहण करता है, वह ऋजुसूत्र नय है।
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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