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________________ मोहनीय कर्म - जो कर्म जीव को स्व-पर विवेक में तथा स्वरूपरमण में बाधा पहुंचाता है अथवा जो कर्म आत्मा के सम्यक्त्व और चरित्रगुण का घात करता है, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। इसके २८ भेद हैं। यथाख्यात संयम - समस्त मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय से जैसा आत्मा का स्वभाव बताया है, उस अवस्था रूप वीतराग संयम । यथाप्रवृत्त करण - जिस परिणाम शुद्धि के कारण जीव आयुकर्म के सिवाय शेष सात कर्मों की स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम एक कोडा - कोडी सागरोपम जितनी कर देता है। जिसमें करण से पहले के समान अवस्था (स्थिति) बनी रहे, उसे यथाप्रवृत्तकरण कहते हैं। यवमध्य भाग - आठ युका का एक यवमध्य भाग होता है। युग - पांच वर्ष का समय । यूका - आठ लीख की एक यूका (जूं) होती है। योग - मन, वचन और काया के व्यापार को योग कहते हैं। वीर्यान्तराय के क्षय या क्षयोपशम से मनोवर्गणा, वचनवर्गणा और कायवर्गणा के पुद्गलों का आलम्बन लेकर आत्म-प्रदेशों में होने वाले परिस्पन्द - कम्पन या हलन चलन को भी 'योग' कहते हैं। इसी योग को 'प्रयोग' भी कहते हैं। अथवा साध्वाचार का पालन करना संयम योग है। आत्मप्रदेशों में परिस्पन्दन होने को योग कहते हैं। आत्मप्रदेशों में अथवा आत्मशक्ति में परिस्पन्दन मन, वचन, काया के द्वारा होता है, अतः मन, वचन, काया के कर्म व्यापार को अथवा पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन, काय से युक्त जीव की कर्मों को ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति को योग कहा जाता है। योग निरोध - योगों के विनाश की योग निरोध संज्ञा है। - योजन - चार गव्युत या आठ हजार धनुष्य का एक योजन होता है। - योनि - योनि शब्द 'यु मिश्रणे' धातु से बना है। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है 'युवन्ति अस्यामिति योनिः' अर्थात् जिसमें तैजस कार्मण शरीर वाले जीव, औदारिकादि शरीर योग्य पुद्गल स्कान्ध के समुदाय के साथ मिश्रित होते हैं, उसे 'योनि' कहते हैं। अर्थात् जीवों की उत्पत्ति स्थान को योनि कहते हैं। वह योनि प्रत्येक जीवनिकाय के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श के भेद से अनेक प्रकार की है। यौगालिक - मानव सभ्यता के पूर्व की सभ्यता, जिसमें मनुष्य युगल रूप में जन्म ता है, वे यौगालिक कहलाते हैं। उनकी आवश्यक सामग्रियों की पूर्ति कल्पवृक्षों से होती है। वर्ग - समान दो संख्याओं का आपस में गुणा करने पर प्राप्त राशि। सजातीय प्रकृतियों के समुदाय । अविभागी प्रतिच्छेदों का समूह। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only ५५१ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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