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वर्गणा - समान जातीय पुद्गलों का समूह।
वचनयोग - जीव के उस व्यापार को कहते हैं जो औदारिक, वैक्रिय या आहारक शरीर की क्रिया द्वारा संचय किए हुए भाषा द्रव्य की सहायता से होता है। अथवा भाषा परिणामरूपता को प्राप्त हुए पुद्गल को वचन कहते हैं और उस सहकारी कारणभूत वचन के द्वारा होने वाले योग को वचनयोग कहते हैं। अथवा - वचन पर विजय करने वाले योग को या भाषा-वर्गणा सम्बन्धी पुद्गल स्कंधों के अवलंबन से जो जीव प्रदेशों में संकोच - विकोच होता है, उसे वचनयोग कहते हैं।
वऋषभ नाराच - वज्र का अर्थ कीली, ऋषभ का अर्थ वेष्टनपट्टी और नाराच का अर्थ दोनों ओर मर्कटबंध है। जिस संहनन में दोनों तरफ से मर्कटबंध से बंधी हुई दो हड्डियों को भेदने वाली हड्डी की कील लगी हुई हो, उसे वज्र ऋषभ नाराच कहते हैं।
वर्ण - जिस कर्म के उदय से शरीर में कृष्ण, गौर आदि रंग होते हैं, उसे वर्ण कहते
वनस्पति काय - जिन जीवों का शरीर वनस्पतिमय होता है। वामन संस्थान - इस संस्थान वाले का शरीर वामन (बौना) होता है।
विकल प्रत्यक्ष - चेतना शक्ति के अपूर्ण विकास के कारण जो ज्ञान मूर्त पदार्थों के समग्र पर्यायों, भावों को जानने में असमर्थ हो।
विग्रह गति - जीव की एक जन्म से दूसरे जन्म में जाते समय बीच में होने वाली गति दो प्रकार की होती है- ऋजु और विग्रह (वक्र)। ऋजु गति एक समय की होती है। मृत जीव की उत्पत्ति-स्थान विश्रेणि में होता है तब उसकी गति विग्रह (वक्र) होती है। इसीलिए वह दो से लेकर चार समय तक की होती है। जिस विग्रहगति में एक घुमाव होता है उसका कालमान दो समय का, जिसमें दो घुमाव हो उसका कालमान चार समय का होता है। (स्थानांग वृत्ति, पत्र ५२ विग्रह गति वक्रगतिर्यदा विश्रेणिव्यवस्थितमुत्पत्ति स्थानं गन्तव्यं भवति तदा या स्यात्)
विपाक - कर्म प्रकृति की विशिष्ट अथवा विविध प्रकार के फल देने की शक्ति को और फल देने के अभिमुख होने को विपाक कहते हैं।
विपाक काल - कर्म प्रकृतियों का अपने फल देने के अभिमुख होने का समय।
विपुलमति मनःपर्यायज्ञान - चिंतनीय वस्तु के पर्यायों को विविध विशेषताओं सहित स्फुटता से जानना।
विभंग ज्ञान - इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना केवल आत्मा के द्वारा रूपी द्रव्यों को जानना अवधिज्ञान है। मिथ्यात्वी का यही ज्ञान विभंग कहलाता है।
विरति - हिंसादि सावध व्यापारों अर्थात् पापजनक प्रयत्नों से अलग हो जाना। ५५२
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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