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पीछे किया हुआ तप भी करना। यह महा और लघु दो प्रकार का होता है। प्रस्तुत क्रम में अधिकाधिक सोलह दिन का तप होता है और फिर उसी क्रम से उतार होता है। समग्र तप में १ वर्ष ६ महिने और ९८ दिन लगते हैं। इस तप की भी ४ परिपाटी होती है। इस का क्रम यंत्र के अनुसार चलता है।
मान - गर्व, अभिमान। झूठे आत्मप्रदर्शन को मान कहते हैं। अथवा जिस दोष से दूसरे के प्रति नमने की वृत्ति न हो, छोटे बड़े के प्रति उचित नम्रभाव न रखा जाता हो, जाति कुल; तप आदि के अहंकार से दूसरे के प्रति तिरस्कार रूप वृत्ति हो; उसे मान कहते हैं।
माया - कपट भाव, अर्थात विचार और प्रवृत्ति में एकरूपता के अभाव को माया कहते हैं। आत्मा का कुटिल भाव। दूसरे को ठगने के लिए जो कुटिलता या छल आदि किए जाते हैं, अपने हृदय के विकारों को छिपाने की जो चेष्टा की जाती, वह माया है। अथवा विचार और प्रवृत्ति में एकरूपता के अभाव को माया कहते हैं।
मार्गणा - मार्गणा उन अवस्थाओं को कहते हैं जिनमें गति आदि से जीवों को देखा जाता है, उनकी उसी रूप में विचारणा, गवेषणा करना मार्गणा कहलाती है।
मिथ्यात्व - तत्त्व के प्रति विपरीत श्रद्धा। अथवा पदार्थों का अयथार्थ श्रद्धान।
मिथ्यात्व-मोहनीय - जिसके उदय से जीव को तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप की रुचि ही न हो, उसे मिथ्यात्व-मोहनीय कहते हैं। इस कर्म के उदय से जीव सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग पर न चलकर उसके प्रतिकूल मार्ग पर चलता है। संमार्ग से विमुख रहता है, जीवाजीवादि तत्वों पर श्रद्धा नहीं रखता है और अपने हिताहित का विचार करने में असमर्थ रहता है। अर्थात् हित को अहित और अहित को हित समझता है।
मिश्र मोहनीय - इसका दूसरा नाम सम्यक्त्व मिथ्यात्व मोहनीय है। जिस कर्म के उदय से जीव को यथार्थ की रुचि या अरुचि न होकर दोलायमान स्थिति रहे, उसे मिश्र मोहनीय कहते हैं। इसके उदय से जीव को न तो तत्त्वों के प्रति रुचि होती है और न अतत्त्वों के प्रति अरुचि हो पाती है। इस रुचि को खट्टीमीठी वस्तु के स्वाद के समान समझना चाहिए। मिथ्यात्व के अर्धशुद्ध दलिकों को भी मिश्र मोहनीय कहते हैं।
मुक्त - संपूर्ण कर्म क्षय कर जन्म-मरण से रहित होना।
मुक्त जीव - संपूर्ण कर्मों का क्षय करके जो अपने ज्ञानदर्शनादि भाव प्राणों से युक्त होकर आत्मस्वरूप में अवस्थित हैं, वे मुक्तजीव कहलाते हैं।
मुहूर्त - दो घटिका या ४८ मिनिट का समय। मूल प्रकृति - कमों के मुख्य भेदों को मूल प्रकृति कहते हैं।
मोक्ष - संपूर्ण कमों के क्षय होने को मोक्ष कहते हैं। संपूर्ण कर्म-पुद्गलों का आत्म प्रदेशों से पृथक् हो जाना द्रव्यमोक्ष और द्रव्य मोक्ष जन्य आत्मा के विशुद्ध परिणामों को भावमोक्ष कहा जाता है। ५५०
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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