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________________ मनोद्रव्य योग्य जघन्य वर्गणा - श्वासोच्छ्वास योग्य उत्कृष्ट वर्गणा के बाद की अग्रहण योग्य उत्कृष्ट वर्गणा के स्कंधों से एक प्रदेश अधिक स्कंधों की मनोद्रव्य योग्य जघन्य वर्गणा होती है । मनोयोग - जीव का वह व्यापार जो औदारिक, वैक्रिय या आहारक शरीर के द्वारा ग्रहण किए हुए मनप्रायोग्य वर्गणा की सहायता से होता है अथवा काययोग के द्वारा मनप्रायोग्य वर्गणाओं को ग्रहण करके मनोयोग रूप परिणत हुए वस्तु विचारात्मक द्रव्य को मन कहते हैं और उस मन के सहचारी कारणभूत योग को मनोयोग कहते हैं अथवा जिस योग का विषय मन है अथवा मनोवर्गणा से निष्पन्न हुए द्रव्यमन के अवलंबन से जीव का जो संकोच विकोच होता है वह मनोयोग है। मरण - आयुष्य पूर्ण (पुरा) होने पर आत्मा का शरीर से पृथक् होना, अथवा शरीर प्राणों का निकलना तथा बंधे हुए आयुष्य में से प्रति समय आयु- दलिकों का क्षय होना 'मरण' कहलाता है। महाकमल - चौरासी लाख महाकमलांग का एक महाकमल होता है। महाकमलांग - चौरासी लाख कमल के समय को एक महाकमलांग कहते हैं। महाकुमुद - चौरासी लाख महाकुमुदांग का एक महाकुमुद होता है। महाकुमुदांग - चौरासी लाख कुमुद का एक महाकुमुदांग होता है। महाभद्र प्रतिमा - ध्यानपूर्वक तप करने का एक प्रकार । चारों ही दिशाओं में क्रमशः एक-एक अहोरात्र तक कायोत्सर्ग करना । महालता- चौरासी लाख महालतांग के समय को एक महालता कहते हैं। महालतांग - चौरासी लाख लता का एक महालतांग कहलाता है। महाशलाका पल्य - महासाक्षी भूत सरसों के दानों द्वारा भरे जानेवाले पल्य को महाशलाकापल्य कहते हैं। महावत - हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह का मन, वचन और काया से जीवन पर्यंत परित्याग। हिंसा आदि को पूर्णरूपेण त्याग किए जाने से इन्हें महाव्रत कहा जाता है। गृहस्थवास का त्याग कर साधना में प्रवृत्त होनेवालों का यह शील है। महासर्वतोभद्र प्रतिमा- इस तप का आरंभ उपवास से होता है और क्रमशः सात उपवास (षोडश भक्त) तक पहुँच जाता है। बढ़ने का इसका क्रम लघु की भांति ही है। अंतर केवल इतना ही है कि लघु में उत्कृष्ट तप द्वादशभक्त और इसमें षोडश भक्त है। एक परिपाटी का कालमान १ वर्ष १ महिना और १० दिन है। इसकी चार परिपाटियाँ हैं, इसकी आराधना वीर कृष्ण ने की थी। इसका क्रम यंत्र के अनुसार चलता है। महासिंह निष्क्रीडित तप तप करने का एक विशेष प्रकार । सिंह गमन करता हुआ जिस प्रकार पीछे मुड़कर देखता है, उसी प्रकार तप करते हुए आगे बढ़ना और साथ ही जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only ५४९ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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