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________________ भाव - जीव और अजीव द्रव्यों का अपने-अपने स्वभाव रूप से परिणमन होना । भावकर्म- जीव के मिथ्यात्व आदि वे वैभाविक स्वरूप जिनके निमित्त से कर्मपुद्गल कर्म रूप हो जाते हैं। भावप्राण- ज्ञान, दर्शन, चेतना आदि जीव के गुण | भावलेश्या - भोग और संक्लेश से गत आत्मा का परिणाम विशेष । संक्लेश का कारण कषायोदय है। अतः कषायोदय से अनुरंजित योग प्रवृत्ति को भाव लेश्या कहते हैं। मोहकर्म के उदय या क्षयोपशम या उपशम या क्षय से होनेवाली जीव के प्रदेशों में चंचलता को भावलेश्या कहते हैं। भेद विज्ञान - शरीर और आत्मा दो अलग अस्तित्व हैं, इनका आमूलेष मात्र भ्रम है, जो विज्ञान इसे युक्ति युक्त प्रतिपादित करता है वह स्व-पट- 1 ट-विज्ञान। भोग-उपभोग - एक बार भोगे जानेवाले पदार्थों को भोग और बार- बार भोगे जानेवाले पदार्थों को उपभोग कहते हैं। भोगांतराय - भोग के साधन होते हुए भी जिस कर्म के उदय से जीव भोग्य वस्तुओं का भोग नहीं कर सकता, उसे भोगांतराय कहते हैं। जो पदार्थ एक बार भोगे उन्हें भोग कहते हैं। जैसे भोजनादि । जाए मतिअज्ञान - मिथ्यादर्शन के उदय से होनेवाला विपरीत मति उपयोग रूप ज्ञान। मतिज्ञान मन और इंन्द्रियों की सहायता द्वारा होनेवाले पदार्थ के ज्ञान को मतिज्ञान कहते हैं। मतिज्ञान को अभिनिबोधिक ज्ञान भी कहते हैं। अथवा इंद्रिय और मन के द्वारा यथायोग्य स्थान में अवस्थित वस्तु का होनेवाला ज्ञान। मन- विचार करने का साधन । मनः पर्याप्ति - जिस शक्ति से जीव मन के योग्य मनोवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके मन रूप परिणमन करे और उसकी शक्ति विशेष से उन पुद्गलों को वापस छोड़े उसकी पूर्णता को मनः पर्याप्ति कहते हैं। मनः पर्याय ज्ञान - मन के चिंतनीय परिणामों को जिस ज्ञान से प्रत्यक्ष किया जाता है, उसे मनः पर्याय ज्ञान कहते हैं। मनुष्य जो मन के द्वारा नित्य ही हेय - उपादेय, तत्त्व अतत्त्व, आप्त- अनाप्त, धर्म-अधर्म आदि का विचार करते हैं, कर्म करने में निपुण हैं, उत्कृष्ट मन के धारक हैं, विवेकशील होने से न्याय- -नीतिपूर्वक आचरण करनेवाले हैं, उन्हें मनुष्य कहते हैं। मनोद्रव्य योग्य उत्कृष्टा वर्गणा- मनोद्रव्य योग्य जघन्य वर्गणा के ऊपर एक-एक प्रदेश बढ़ते-बढ़ते जघन्य वर्गणा के स्कन्ध के प्रदेशों के अनन्तवें भाग अधिक प्रदेश वाले स्कन्धों की मनोद्रव्य योग्य उत्कृष्ट वर्गणा होती है। जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व ५४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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