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________________ बादर अद्धा सागरोपम - दस कोटा-कोटी बादर अद्धा पल्योपम के काल को बादर अद्धा सागरोपम कहा जाता है। बादर उद्धार पल्योपम - उत्सेधांगुल के द्वारा निष्पन्न एक योजन प्रमाण लम्बे, एक योजन प्रमाण चौड़े और एक योजन प्रमाण गहरे, एक गोल पल्य गड्ढे को एक दिन तक के उगे बालारों से ठसाठस भरकर कि जिसको न आग जला सके, न वायु उड़ा सके और .न जल का ही प्रवेश हो सके, प्रति समय एक-एक बालाग्र के निकालने पर जितने समय में वह पल्य खाली हो जाए, उस काल को बादर उद्धार पल्योपम कहते हैं। बादर उद्धार सागरोपम - दस कोटा-कोटी बादर उद्धार पल्योपम के काल को बादर उद्धार सागरोपम कहा जाता है। बादर काल पुद्गल परावर्त - जिसमें बीस कोटा-कोटी सागरोपम के एक कालचक्र के प्रत्येक समय को क्रम या अक्रम से जीव अपने मरण द्वारा स्पर्श कर लेता है। बादर भाव पुद्गल परावर्त - एक जीव अपने मरण के द्वारा क्रम से या बिना क्रम के अनुभाग बंध के कारण भूत समस्त कषाय स्थानों को जितने समय में स्पर्श कर लेता है। बादर द्रव्य पुद्गल परावर्त - जितने काल में एक जीव समस्त लोक में रहनेवाले सब परमाणुओं को आहारक शरीर वर्गणा के सिवाय शेष औदारिक शरीर आदि सातों वर्गणा रूप से ग्रहण करके छोड़ देता है। बादर क्षेत्र पुद्गल परावर्त - एक जीव अपने मरण के द्वारा लोकाकाश के समस्त प्रदेशों को क्रम से या बिना क्रम से जैसे बने वैसे जितने समय में स्पर्श कर लेता है, उसे बादर क्षेत्र पुद्गल परावर्त कहते हैं। बाल मरण - अज्ञान दशा-अविरत दशा में मृत्यु। बाल तपस्वी - अज्ञान पूर्वक तप का अनुष्ठान करनेवाला। अथवा आत्मस्वरूप को न समझकर अज्ञानपूर्वक काय क्लेश आदि तप करनेवाला। बीजाष्टक -हँ हाँ ही हूँ हूँ है है हौ अष्टराष्टक; इनमें से ह्रींको माया बीज कहते हैं। भव विपाकी प्रकृति - भव की प्रधानता से अपने फल देनेवाली प्रकृति भद्र प्रतिमा - ध्यानपूर्वक तप करने का एक प्रकार। पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर की ओर मुख कर क्रमशः प्रत्येक दिशा में ४-४ प्रहर तक ध्यान करना। यह प्रतिमा दो दिन की होती है। भद्र ध्यान - जो जीव भोगों को त्यागकर धर्म का चिन्तवन करता है और चिन्तवन करते हुए भी इच्छानुरूप भोगों का सेवन करता है, उसका भद्रध्यान मानना चाहिए मर्यादित भोग-सेवन करते हुए भी धर्म ध्यान। भव्य - जिसमें मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता है। जो मोक्ष प्राप्त करते हैं, अथवा जिनमें सम्यग्दर्शन आदि भाव प्रगट होने की योग्यता है। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग ५४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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