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________________ द्रव्य प्राण - इंद्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास। - द्रव्यलेश्या - पुद्गल विपाकी वर्ण नामकर्म के उदय से जो लेश्या-शरीरगत वर्ण होता है, वह द्रव्यलेश्या है। कृष्ण, नील व पीतादि द्रव्यों को ही द्रव्यलेश्या कहा जाता है। अथवा वर्ण नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुए शरीर के वर्ण को द्रव्यलेश्या कहते हैं। द्रव्य निक्षेप - जो भावी परिणाम विशेष की प्राप्ति के प्रति अभिमुख हो- उसकी योग्यता को धारण करता हो, वह द्रव्य निक्षेप है। द्रव्यमन - पुद्गल विपाकी वर्ण नामकर्म के उदय से जो पुद्गल मन रूप में परिणत होते हैं, उन्हें द्रव्यमन कहा जाता है। द्रव्यार्थिक नय - जो विविध पर्यायों को वर्तमान में प्राप्त करता है, भविष्य में प्राप्त करेगा और भूतकाल में प्राप्त किया है, उसका नाम द्रव्य है। इस द्रव्य को विषय करनेवाला नय द्रव्यार्थिक नय है। द्रव्यास्रव - ज्ञानावरणादि के योग्य पुद्गलों के आगमन को द्रव्यास्रव कहते हैं। द्रव्येद्रिय - निवृत्ति और उपकरण को द्रव्येंद्रिय कहते हैं। पुद्गलों के द्वारा जो बाहरी आकार की रचना होती है, उसे तथा कदम्ब पुष्प आदि के आकार से युक्त उपकरण -ज्ञान के साधन को द्रव्येंद्रिय कहते हैं। द्वादशांगी - तीर्थंकरों की वाणी का गणधरों के द्वारा ग्रंथ रूप में होनेवाला संकलन अंग कहलाता है। वे बारह हैं। पुरुष के शरीर में मुख्य रूप से दो पैर, दो जंघाएँ, दो ऊरू, दो गात्रार्द्ध (पार्श्व), दो बाहु, एक गर्दन और एक मस्तक होते हैं; उसी प्रकार श्रुत रूप पुरुष के बारह अंग हैं। उनके नाम (१) आचारांग (२) सूत्रकृतांग (३) स्थानांग (४) समवायांग (५) विवाह-प्रज्ञप्ति (भगवती) (६) ज्ञाताधर्म कथांग (७) उपासक दशांग (८) अन्तकृतदशांग (९) अनुत्तरौपपातिक (१०) प्रश्रव्याकरण (११) विपाकश्रुत और (१२) दृष्टिवाद। द्वितीय स्थिति - अन्तर स्थान से ऊपर की स्थिति को कहते हैं। द्वितीयोपशम सम्यक्त्व - जो वेदक सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबंधी कषाय और दर्शन-मोहनीय का उपशम करके उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होता है, उसे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहते हैं। द्विस्थानिक - कर्म प्रकृतियों के स्वाभाविक अनुभाग से दुगुना अनुभाग। दृष्टिवाद - जिस श्रृत में सभी पदार्थों की प्ररूपणा की जाती है, वह दृष्टिवाद है। पद्म- चोरासी लाख पद्मांग का एक पद्म होता है। पद्म लेश्या - हल्दी के समान पीले रंग के लेश्या पुद्गलों से आत्मा में ऐसे परिणामों का होना जिससे काषायिक प्रवृत्ति काफी अंशों में कम हो, चित्त प्रशान्त रहता हो, आत्म-संयम और जितेन्द्रियता की वृत्ति आती हो। ५४२ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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