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________________ दानांतराय - दान की सामग्री पास में हो, गुणवान पात्र दान लेने के लिए सामने हो; दान फल भी ज्ञात हो, दान की इच्छा भी हो, फिर भी जिस कर्म के उदय से जीव को दान देने का उत्साह नहीं होता, उसे दानांतराय कहते हैं। दिग् विरति व्रत - यह जैन श्रावक का छट्ठा व्रत है। इसमें श्रावक दस दिशाओं में मर्यादा से अधिक गमनागमन का त्याग करता है। दीपक दीपक सम्यक्त्व - जिनोक्त क्रियाओं से होनेवाले लाभों का समर्थन करना, सम्यक्त्व है। दीक्षा - समस्त आरंभ परिग्रह के परित्याग को और व्रत ग्रहण को दीक्षा कहा है। दुःख - अंतरंग में असाता वेदनीय कर्म का उदय होने पर तथा बाह्य द्रव्यादि के परिपाक का निमित्त मिलने से जो चित्त में परिताप परिणाम होता है, उसे दुःख कहते हैं। दुःखविपाक - जिनमें दुःख के विपाक से युक्त जीवों के नगर, उद्यान, वनखंड, चैत्य, समवसरण, माता-पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलौकिक और परलौकिक ऋद्धि विशेष नरक गतिगमन का वर्णन है, वह दुःख विपाक है। दूर भव्य - जो भव्य जीव बहुत काल के बाद मोक्ष प्राप्त करनेवाला है। देव - देवगति नामकर्म के उदय होनेपर नाना प्रकार की बाह्य विभूति से द्वीप समुद्र आदि अनेक स्थानों पर इच्छानुसार क्रीडा करते हैं। विशिष्ट ऐश्वर्य का अनुभव करते हैं, दिव्यवस्त्राभूषणों की समृद्धि तथा अपने शरीर की साहजिक कांति से जो द्वीप्तिमान रहते हैं वे देव कहलाते हैं। ये चार प्रकार के हैं- भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक | देशचरित्र - हिंसादि पापों से की जानेवाली एकदेश विरति का नाम देशचरित्र है ! देशविरति - ग्राम - नगर आदि के जितने देश का प्रमाण निश्चित किया गया है, उसका नाम देश है। उसके बाहर गमन का परित्याग करना देशविरति है । अथवा अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय न होने के कारण जो जीव देश (अंश) से पापजनक क्रियाओं से अलग हो सकते हैं वे देशविरति कहलाते हैं। देशना - छह द्रव्य, सात तत्त्व, पाँच अस्तिकाय और नौ पदार्थों के उपदेश को देशना कहते हैं। देशावगासिक व्रत - दिग्व्रत में जो दिशा का प्रमाण किया गया है, उसमें प्रतिदिन संक्षेप करना, देशावगासिक व्रत है। द्रव्य - जो अपने स्वभाव को न छोड़ता हुआ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से संबद्ध रहकर गुण और पर्याय से सहित होता है, वह द्रव्य है। जो गुणों का आश्रय होता है, वह द्रव्य है। द्रव्य कर्म - ज्ञानावरणादि रूप से परिणत पुद्गल पिण्ड को द्रव्य कर्म कहा जाता है। । अथवा ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणाम को प्राप्त हुए पुद्गल । जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only - ५४१ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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