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तृतीय सप्तअहोरात्र प्रतिमा - साधु द्वारा सात दिन तक चौविहार एकांतर उपवास, गोदुहासन, वीरासन या आम कुब्जासन (आम्रफल की तरह वक्राकार स्थिति में बैठना) से ग्रामादि के बाहर कायोत्सर्ग करना।
दंड समुद्घात - सयोगी केवली गुणस्थान वर्ती जीव के द्वारा पहले समय में अपने शरीर के बाहुल्य प्रमाण आत्म प्रदेशों को ऊपर से नीचे तक लोक पर्यंत रचने को दंड समुद्घात कहते हैं।
दर्शन - सामान्य धर्म की अपेक्षा जो पदार्थ की सत्ता का प्रतिभास होता है, उसे दर्शन कहते हैं। सामान्य विशेषात्मक वस्तुस्वरूप में से वस्तु के सामान्य अंश के बोधरूप चेतना के व्यापार को दर्शन कहते हैं। अथवा - सामान्य की मुख्यता पूर्वक विशेष को गौण करके पदार्थ के जानने को दर्शन कहते हैं।
दर्शनोपयोग - प्रत्येक वस्तु में सामान्य और विशेष इस प्रकार के दो धर्म पाये जाते हैं। उनमें से सामान्य धर्म को ग्रहण करनेवाले उपयोग को दर्शनोपयोग कहते हैं।
दर्शन मोहनीय - जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसा ही समझना दर्शन है, अर्थात् तत्त्वार्थ श्रद्धा को दर्शन कहते हैं। यह आत्मा का गुण है। इसको घात करनेवाले -आवृत करनेवाले कर्म को दर्शन मोहनीय कहते हैं।
दया - प्राणियों के प्रति अनुकंपा करने को - उनके दुःख को देखकर स्वयं दुःख का अनुभव करना और उनकी रक्षा करने की भावना हृदय में आना दया है।
दत्ति - हाथ से अखंड धारा पूर्वक दी गई भिक्षा दत्ति कहलाती है। भिक्षा का विच्छेद होनेपर पात्र में एक कण गिरजाए तो भी दत्ति मानी जाती है। इस प्रकार दत्तियों की संख्या के अनुसार भोजन ग्रहण करना चाहिए।
दर्शनाचार - निःशंकितादि आठ अंगोयुक्त सम्यक्त्व का परिपालन करना दर्शनाचार है।
दर्शनावरण कर्म - जो कर्म आत्मा के दर्शन गुण को आच्छादित करे, उसे दर्शनावरण कर्म कहते हैं। इसके नौ भेद हैं (१) चक्षुदर्शनावरण (२) अचक्षुदर्शनावरण (३) अवधिदर्शनावरण (४) केवल दर्शनावरण (५) निद्रा (६) निद्रा-निद्रा (७) प्रचला (८) प्रचला-प्रचला (९) स्त्यानर्द्धि
दशवैकालिक - मनक नामक पुत्र के हितार्थ आचार्य शय्यंभव के द्वारा अकाल में रचे हुए १० अध्ययन स्वरूप श्रुत को दशवैकालिक कहा जाता है।
दान - अपने और दूसरे के अनुग्रह के लिए जो धनादि का त्याग किया जाता है, वह दान है।
__ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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