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अनंतर ही उपदेश करते हैं और उससे प्रेरित होकर भव्य जन साधु-साध्वी, श्रावकश्राविका बनते हैं।
तीर्थंकर - संसार सागर को स्वयं पार करने तथा दूसरों को पार करानेवाले महापुरुष तीर्थंकर कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में तीर्थ का प्रवर्तन करनेवाले आप्त पुरुष ।
तीर्थंकर नाम गोत्र - जिस नाम कर्म के उदय से जीव तीर्थंकर रूप में उत्पन्न होता
तिर्यग्लोक - एक लाख योजन के सातवें भाग मात्र सूची अंगूल के बाहुल्य रूप तर को तिर्यग् लोक कहते हैं।
तेजस् समुद्घात - जीवों के अनुग्रह और निग्रह करने में समर्थ ऐसे तेजस् शरीर के कारण भूत समुद्घात को तेजस् समुद्घात कहते हैं।
तेजोलेश्या - तोते की चोंच के समान रक्त वर्ण के लेश्या पुद्गलों से आत्मा में होनेवाले वे परिणाम जिनसे नम्रता आती है, धर्मरुचि दृढ होती है, दूसरे का हित करने की इच्छा होती है आदि।
तेजसवर्णंगा - जिन वर्गणाओं से तेजस शरीर बनता है।
तेजोलब्धि - उष्णता प्रधान एक संहारक शक्ति विशेष । यह शक्ति विशेष तप से प्राप्त की जा सकती है। यह आत्मा की एक प्रकार की तेजस् शक्ति है। इस लब्धि के प्रभाव से योगियों को ऐसी शक्ति प्राप्त हो जाती है कि, कभी क्रोध आ गया तो वे बायें पैर
अंगूठे को घिसकर एक तेज निकालते हैं, जो अग्नि के समान प्रचंड होता है। विरोधी को वहीं जलाकर भस्म कर देते हैं। इसमें कई योजनों तक में रही हुई वस्तु को जलाकर भस्म कर सकते हैं। उत्कृष्ट शक्ति प्रयोग में १६ ।। महाजन पदों को एक साथ भस्म करने की शक्ति भी इस लब्धिधारक में होती है। इसकी शक्ति अणुबम से भी अधिक विस्फोटक है।
तैजस शरीर - तैजस पुद्गलों से बने हुए आहार को पचाने वाले और तेजोलेश्या से युक्त साधक के शरीर को तैजस शरीर कहते हैं।
सकाय - जो शरीर चल फिर सकता है और जो त्रस नामकर्म के उदय
होता है।
स नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीव को त्रसकाय की प्राप्ति होती है। त्रसरेणु - आठ उर्ध्वरेणु का एक त्रसरेणु होता है।
त्रिदंडी तापस- मन, वचन और कायरूप तीनों दंडों से दंडित होनेवाला तापस। त्रिस्थानिक - कर्म प्रकृति के स्वाभाविक अनुभाग से तिगुना अनुभाग ।
त्रुटितांग - ८४ लाख पूर्व वर्षों को एक त्रुटितांग कहते हैं । अथवा चौरासी लाख पूर्व के समय को त्रुटितांग कहते हैं।
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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