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________________ निक्षेप - लक्षण और विधान (भेद) पूर्वक विस्तार से जीवादि तत्त्वों के जानने के लिए न्यास से विरचना करना निक्षेप है। निर्विश्यमान - परिहार विशुद्धि संयम को धारण करने वालों को कहते हैं। निर्विष्टकायिक - परिहार विशुद्धि संयम धारकों की सेवा करने वाले। निश्चय सम्यक्त्व - जीवादि तत्त्वों का यथारूप से श्रद्धान करना, निश्चय सम्यक्त्व है। यह आत्मा का वह परिणाम है, जिसके होने पर ज्ञान विशुद्ध होता है। निह्नव - मान वश ज्ञानदाता गुरू का नाम छिपाना, अमुक विषय को जानते हुए भी मैं नहीं जानता, उत्सत्र प्ररूपणा करना आदि निहनव कहलाता है। नीच गोत्र - जिस कर्म के उदय से जीव नीच कुल में जन्म लेता है, उसे नीच गोत्र कर्म कहते हैं। नील लेश्या - अशोक वृक्ष के समान नीले रंग के लेश्या पुद्गलों से आत्मा में ऐसा परिणाम उत्पन्न होना कि जिससे ईर्ष्या, असहिष्णुता, छल, कपट आदि होने लगे। नोकषाय - जो कषाय तो न हो, किंतु कषाय के उदय के साथ जिसका उदय होता है अथवा कषायों को पैदा करने में, उत्तेजित करने में सहायक हो, उसे नोकषाय कहते हैं। नौ योजन - ३६ कोस। चार कोस का १ योजन होता है। न्यग्रोध परिमंडल संस्थान - शरीर की आकृति न्यग्रोध (वटवृक्ष) के समान हो, अर्थात् शरीर में नाभि से ऊपर के अवयव पूर्ण - मोटे हो और नाभि से नीचे के अवयव हीन-पतले हो, उसे न्यग्रोध-परिमंडल संस्थान कहते हैं। तर्क- जिस ज्ञान के द्वारा व्याप्ति के साध्य-साधन रूप अर्थों के संबंध का निश्चय करके अनुमान में प्रवृत्ति होती है, वह तर्क है।। तत्त्व - प्रयोजन भूत वस्तु के स्वभाव को तत्त्व कहते हैं। तत्त्वार्थ - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये तत्त्वार्थ कहे हैं जोकि विविध गुण पर्यायों से संयुक्त हैं। तापस - जटाधारी वनवासी पंचाग्नि तप करने वाले साधुओं को तापस कहा है। तिर्यगायु- जिस कर्म के उदय से जीव का तिर्यच पर्याय में अवस्थान होता है, वह तिर्यगायु कर्म है। तिर्यंच - जो मन, वचन, काया की कुटिलता को प्राप्त हैं, जिनके आहार आदि संज्ञाएँ सुव्यक्त हैं, निकृष्ट अज्ञानी हैं, तिरछे गमन करते हैं और जिनमें अत्यधिक पाप की बहुलता पाई जाती है, उन्हें तिर्यंच कहते हैं। तीर्थ - जिससे संसार समुद्र तैरा जा सके। तीर्थंकरों का उपदेश, उसको धारण करनेवाले गणधर व ज्ञान, दर्शन, चरित्र को धारण करनेवाले साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध संघ को भी तीर्थ कहा जाता है। तीर्थकर केवल ज्ञान प्राप्त करने के ५३८ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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