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________________ पद्मांग - चौरासी लाख उत्पल का एक पद्मांग होता है। पदानुसारिणी तपस्या विशेष से प्राप्त होनेवाली एक दिव्यशक्ति । इस लब्धि के प्रभाव से सूत्र के एक पद को सुनकर आगे के बहुत से पदों का बिना सुने ही अपनी बुद्धि से ज्ञान कर लेता है । जैसे, एक चावल के दाने से पूरे चावलों के पकने का पता चलता है। उसी प्रकार एक बात सुनते ही पूरी बात का ज्ञान होता है और एक पद से अनेक पदों का ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता इस लब्धिधारी में होती है। परमाणु - पुद्गल द्रव्य का चरम सूक्ष्म भाग परमाणु कहलाता है। इसे विभक्त नहीं किया जा सकता। परमाणु के दो प्रकार हैं - (१) निश्चय परमाणु और (२) व्यवहार परमाणु । परमात्मा - सर्वदोष रहित, कैवल्य सम्पन्न शुद्धात्मा। परिहार विशुद्धि संयम परिहार का अर्थ है तपोविशेष और उस तपोविशेष से जिस चरित्र में विशुद्धि प्राप्त की जाती है, उसे परिहार विशुद्धि संयम कहते हैं। अथवा जिसमें परिहार विशुद्धि नामक तपस्या की जाती है, वह परिहार विशुद्धि संयम है। परीषह - साधु या श्रमण जीवन में विविध प्रकार से होनेवाले शारीरिक कष्ट । पर्याप्तक - जिस जीवन में जितनी पर्याप्तियाँ सम्भव हैं वह जब उतनी पर्याप्तियाँ पूरी कर लेता है, या करने की योग्यता हो, उसे 'पर्याप्तक' कहते हैं। एकेन्द्रिय जीव, आहार, शरीर, इंद्रिय और श्वासोच्छ्वास - इन चार पर्याप्तियों को पूरी करने पर, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय, उपर्युक्त चार पर्याप्तियों और पाँचवी भाषा पर्याप्ति पूरी करने पर तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय उपर्युक्त पाँच और छठीं मनः पर्याप्त पूरी करने पर 'पर्याप्तक' कहे जाते है। पर्याप्ति - जीव की वह शक्ति जिसके द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करने तथा उनको आहार, शरीर आदि के रूप में बदल देने का कार्य होता है। . पल्य - अनाज वगैरे (वगैरह ) भरने के गोलाकार स्थान को पल्य कहते हैं। पल्योपम - काल की जिस लम्बी अवधि को पल्य की उपमा दी जाती है, उसको पल्योपम कहते हैं। एक योजन लम्बे, एक योजन चौड़े एवं एक योजन गहरे गोलाकार कूप की उपमा से जो काल गिना जाता है उसे पल्योपम कहते हैं। परोक्ष - मन और इंद्रिय आदि बाह्य निमित्तों की सहायता से होनेवाला पदार्थ सम्बन्धी ज्ञान । पश्चादानुपूर्वी - अंत से प्रारंभ कर आदि तक की गणना करना । पाद - छह उत्सेधांगुल का एक पाद होता है। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only ५४३ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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