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________________ कर देना गुणश्रेणी है। अथवा ऊपर की स्थिति में उदय क्षण से लेकर प्रतिसमय असंख्यात गुणे- असंख्यात गुणे कर्मदलिकों की रचना को गुणश्रेणी कहते हैं। . गुणश्रेणी निर्जरा - अल्प-अल्प समय में उत्तरोत्तर अधिक-अधिक कर्म परमाणुओं का क्षय करना। गुण हानि - प्रथम निषेक अवस्थित हानि से जितना दूर जाकर आधा होता है उस अन्तराल को गुण हानि कहते हैं। अथवा अपनी-अपनी प्रथम वर्गणा के वर्ग से एक-एक अविभागी प्रतिच्छेद अनुक्रम से बंधता है, ऐसे स्पर्धकों के समय का नाम गुण हानि है। गुप्ति - सम्यग्दर्शन पूर्वक मन वचन एवं काय योगों के निग्रह करने को गुप्ति कहते हैं। गोचरी - जैन श्रमणों का विधिवत् आहार-याचन। दूसरे शब्दों में इसे भिक्षाटन या माधुकरी भी कह सकते हैं। गोत्र कर्म - जो कर्मजीव को उच्च, नीच कुल में जन्मावे अथवा जिस कर्म के उदय से जीव में पूज्यता, अपूज्यता का भाव उत्पन्न हो, जीव उच्च-नीच कहलाए, उसे गोत्र कर्म कहते हैं। इसके दो भेद हैं -१) उच्च गोत्र २) नीच गोत्र व ग्रैवेयेक - लोकरूप पुरुष के ग्रीवा के स्थान पर अवस्थित विमानों को अवेयक कहते हैं। गृहस्थ - श्रावकोचित नित्य एवं नैमित्तिक अनुष्ठानों को करने वाले मानवों को गृहस्थ कहा है। ___घातिकर्म - आत्मा के अनुजीवी गुणों का, आत्मा के वास्तविक स्वरूप का घात करने वाले कर्म। चक्रवर्ती - चक्ररत्न का धारक व अपने युग का सर्वोत्तम श्लाघ्य पुरुष। चक्रवर्ती भरत क्षेत्र के छः खण्ड का एक मात्र अधिपति प्रशासक होता है। ३२ हजार मुकुटबंध राजाओं का स्वामी होता है। चक्रवर्ती के १४ रन होते हैं - १) चक्र २) छत्र ३) दंड ४) असि ५) मणि ६) काकिणी ७) चर्म ८) सेनापति ९) गाथापति १०) वर्धकी ११) पुरोहित १२) स्त्री १३) अश्व १४) गज। नवनिधियाँ भी होती हैं। चतुर्दश पूर्व - उत्पाद, अग्रायणीय, वीर्यप्रवाद, अस्ति-नास्ति प्रवाद, ज्ञान प्रवाद, सत्य प्रवाद, आत्म प्रवाद, कर्म प्रवाद, प्रत्याख्यान प्रवाद, विद्या प्रवाद, अवन्ध्य, प्राणावाय, क्रिया विशाल और लोक बिंदुसार यह चौदह पूर्व दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग के अंतर्गत हैं। विश्वविद्या का ऐसा कोई भी विषय नहीं है, जिसका वर्णन पूर्व में नहीं किया गया हो। यंत्र, मंत्र, तंत्र, शद शास्त्र, ज्योतिष, भूगोल, रसायन, रिद्धि-सिद्धि आदि समस्त विषयों की चर्चा पूर्व में होती हैं। चतुर्थ भक्त - उपवास । चार प्रकार के आहार का त्याग। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग ५३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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