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गणि - ११ अंगों के ज्ञाता को गणि कहते हैं; अथवा जो गच्छ का स्वामी हो वह गणि कहलाता है।
गर्भजन्मा - गर्भ से उत्पन्न होने वाले जीवों को गर्भजन्मा कहते हैं। गव्यूत - दो हजार धनुष्यों को गण्यूत (कोश) कहते हैं। गर्दा - दूसरों के समक्ष जो आत्मनिंदा की जाती है, वह गर्हा है। गुण - जो द्रव्य के आश्रय से रहा करते हैं तथा स्वयं अन्य गुणों से रहित होते हैं, वे
गुण हैं।
गुणव्रत - श्रावक के द्वादश (बारह) व्रतों में से छठा, सातवाँ और आठवाँ गुणव्रत कहलाता है। (श्रावक के बारह व्रत)
गुणरत्न-संवत्सर तप - जिस तप में विशेष निर्जरा होती है अथवा जिस तप में निर्जरा रूप विशेष रत्नों से वार्षिक समय बीतता है। इस क्रम में तप के दिन एक वर्ष से कुछ अधिक होते हैं; अतः संवत्सर कहलाता है। इसके क्रम में प्रथम मास में एकांतर उपवास; द्वितीय मास में षष्ठ भक्त, इस प्रकार बढ़ते हुए सोलहवें महिने में १६-१६ का तप किया जाता है। तपः काल में दिन में उत्कटुकासन से सूर्याभिमुख होकर आतापना ली जाती है और रात में वीरासन से वस्त्र रहित रहा जाता है। तप में १३ मास ७ दिन लगते हैं और इस अवधि में ७३ दिन पारणे के होते हैं।
गुण संक्रमण - पहले बंधी हुी अशुभ प्रकृतियों को वर्तमान में बंधनेवाली शुभ प्रकृतियों के रूप में परिणत कर देना। इसका क्रम इस प्रकार है - प्रथम समय में अशुभ प्रकृतियों के जितने दलिकों का शुभ प्रकृति में संक्रमण होता है, उसकी अपेक्षा दूसरे समय में असंख्यात गुणा अधिक दलिकों का संक्रमण होता है। इस प्रकार आगे-आगे के समय में असंख्यात गुण अधिक दलिकों का ही संक्रमण होता है।
गुणस्थान - ज्ञान आदि गुणों की शुद्धि एवं अशुद्धि के न्यूनाधिक भाव से होने वाले जीव के विशेष स्वरूप को गुणस्थान कहते हैं। अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि जीव के स्वभाव को गुणस्थान कहते हैं। दूसरे शदों में कहा जाय तो, दर्शन मोहनीय आदि कर्मों के उदय, उपशम, क्षयोपशम आदि अवस्थाओं के होने पर उत्पन्न होने वाले जिन भावों से जीव लक्षित होते हैं, उन भावों को गुणस्थान कहते हैं।
गुणस्थान क्रम- आत्मिक गुणों के न्यूनाधिक क्रमिक विकास की अवस्था।
गुणश्रेणी - परिणामों की विशुद्धि की वृद्धि से अपवर्तनाकरण के द्वारा उपरितन स्थिति से हीन करके अंतर्मुहूर्त काल तक प्रतिसमय उत्तरोत्तर असंख्यात गुणी वृद्धि के क्रम से कर्म प्रदेशों की निर्जरा के लिए जो रचना होती है, वह गुणश्रेणी है। अथवा जिन कर्मदलिकों का स्थितिघात किया जाता है उनको समय के क्रम से अन्तर्मुहूर्त में स्थापित
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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