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________________ केशाग्र - आठ रथरेणु का देवकुरू और उत्तरकुरू क्षेत्र के मनुष्य का केशाग्र होता है। उनके आठ केशानों का हरिवर्ष और रम्यक्वर्ष के मनुष्य का एक केशाग्र होता है तथा उनके आठ केशानों का हेमवत और हैरण्यवत क्षेत्र के मनुष्य का एक केशाग्र होता है, उनके आठ केशानों का पूर्वापर विदेह के मनुष्य का एक केशाग्र होता है और उनके आठ केशानों का भरत, ऐरवत क्षेत्र के मनुष्य का एक केशान होता है। कोडाकोडी - एक करोड़ को एक करोड़ से गुणा करने पर प्राप्त राशी। क्रोध - समभाव को भूलकर आक्रोश में भर जाना, दूसरों पर रोष करना क्रोध है। अंतरंग में परम उपशम रूप अनन्त गुण वाली आत्मा में क्षोभ तथा बाह्य विषयों में अन्य पदार्थों के सम्बन्ध से क्रूरता, आवेश रूप विचार उत्पन्न होने को क्रोध कहते हैं। अथवा अपना और पर का उपघात या अनुपकार आदि करने वाला क्रूर परिणाम क्रोध कहलाता कृतकरण - सम्यक्त्व मोहनीय के अंतिम स्थिति खण्ड को खपाने वाले क्षपक को कृतकरण कहते हैं। कृष्ण लेश्या - काजल के समान कृष्ण वर्ण के लेश्या जातीय पुद्गलों के सम्बन्ध से आत्मा में ऐसे परिणामों का होना जिससे हिंसा आदि पाँचों आस्रवों में प्रवृत्ति हो, मन, वचन, काया का संयम न रहना, गुण-दोष की परीक्षा किए बिना ही कार्य करने की आदत बन जाना, क्रूरता आ जाना आदि। ग्रंथ - जिस के द्वारा अथवा जिसमें अर्थ को गूंथा जाता है, वह ग्रंथ है। ग्रंथि - जैसे किसी वृक्ष विशेष की कठोर गांठ अतिशय दूर्भेद्य होती है, उसी प्रकार कर्मोदय से उत्पन्न जो जीव के घनीभूत राग द्वेष परिणाम उस गांठ के सदृश्य दुर्भेद्य होते हैं, अतः उन्हें ग्रंथि कहते हैं। ___ गन्ध - जिस कर्म के उदय से शरीर में शुभ-अच्छी या अशुभ-बुरी गन्ध हो, उसे गन्ध कहते है। गति - जिसके उदय से आत्मा मनुष्यादि गतियों में जाए अथवा नारकी, तिर्यंच, मनुष्य, देव की पर्याय प्राप्त करता है, उसे गति नाम कर्म कहते हैं। अथवा - चारों गतियों - नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव में गमन करने के कारण को गति कहते हैं। गतित्रस - गतित्रस उन जीवों को कहते हैं जिनका उदय तो स्थावर नामकर्म का होता है, किन्तु गतिक्रिया पाई जाती है। ___ गणधर - लोकोत्तर ज्ञान दर्शनादि गुणों को धारण करने वाले तीर्थंकरों के प्रधान शिष्य, जो उनकी वाणी को सूत्र रूप में संकलित करते हैं। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग ५३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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