SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 591
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किल्विष - जो देव अंत्यवासियों के समान होते हैं, वे किल्विष हैं। किल्विष नाम पाप का है। पाप से युक्त देव किल्विषिक कहलाते हैं। क्रिया - क्रिया नाम गति का है। जो प्रयोग गति, विस्त्रसा गति और मिश्र गति के भेद से ३ प्रकार की है। (मनुष्य की मुख्य प्रवृत्तियाँ तीन हैं - कायिक, वाचिक और मानसिक)। क्रिया के तीन वर्गीकरण मिलते हैं - १) सूत्रकृतांगानुसार तेरह क्रियाएं हैं (२८२) २) स्थानांग के अनुसार मुख्य और गौण क्रियाओं के भेद से बहत्तर हैं। तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार २५ क्रियाएं हैं। तत्त्वार्थ सू. ६ अ. ६ सूत्र) क्रियावादी - कर्ता के बिना क्रिया संभव नहीं है। एतदर्थ उसका समवाय आत्मा में है, ऐसा कहने वाले क्रियावादी हैं। इसी उपाय से वे आत्मा आदि के अस्तित्व को जानते कुधर्म - मिथ्यादृष्टियों से प्ररूपित जिसमें हिंसादि पापों की मलिनता होती है, वह धर्म नहीं, कुधर्म है। कुब्ज संस्थान - जिस संस्थान वाले का शरीर कुबड़ा हो, वह कुब्ज संस्थान कहा जाता है। कुल - दीक्षा प्रदान करने वाले आचार्य की शिष्य परंपरा अथवा पिता की वंश वृद्धि को कुल कहा जाता है। कुलकर - कर्मभूमि के प्रारंभ में जो कुलों की व्यवस्था करने में दक्ष होते हैं, वे कुलकर हैं। भ. ऋषभदेव के पिता नाभिराय कुलकर थे। केवल दर्शन - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय एवं अंतराय इन ४ घनघाती कर्मों का क्षय होने पर समस्त पदार्थों के भूत, भविष्यत् एवं वर्तमानकाल के पर्यायों को हस्तामलकवत् देखने की शक्ति का प्रकट होना केवल दर्शन है। केवल का अर्थ है अद्वितीय। जो अद्वितीय केवलज्ञान और केवलदर्शन के धारक होते हैं, वे केवली, जिन, अरिहंत, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी आदि कहलाते हैं। केवली समुद्घात - आयुकर्म की स्थिति अल्प और वेदनीय की स्थिति अधिक होने पर उसे अनाभोगपूर्वक अर्थात् बिना उपयोग से आयु को समाप्त करने के लिए केवली भगवान के आत्म-प्रदेश मूल शरीर से बाहर निकलते हैं, वह केवली समुद्घात केवलज्ञान - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय एवं अंतराय इन चार घनघाती कर्मों का क्षय होने पर समस्त पदार्थों के भूत, भविष्यत् एवं वर्तमानकाल के पर्यायों को हस्तामलकवत् जानना, केवल ज्ञान है। अथवा - ज्ञानावरण कर्म का निःशेष रूप से क्षय हो जाने पर जिसके द्वारा भूत, वर्तमान और भावी त्रैकालिक सब द्रव्य और पर्यायें जानी जाती हैं, उसे केवलज्ञान कहते हैं। किसी की सहायता के बिना सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थों का विषय करने वाला केवलज्ञान है। ५३० जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy