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________________ काय - जिसकी रचना एवं वृद्धि औदारिक, वैक्रेय आदि पुद्गलों के स्कंध से होती है, अथवा जो नाम कर्म के उदय से निष्पन्न होता है अथवा जाति नाम कर्म के अविनाभावी स और स्थावर कर्म के उदय से होने वाली आत्मा की पर्याय विशेष । कायक्लेश - कायोत्सर्ग, विविध प्रकार के आसन आदि से शरीर को कष्ट पहुँचाना। काय गुप्ति शयन, आसन, आदान-निक्षेप, स्थान और गमन आदि क्रियाओं को करते समय शरीर की प्रवृत्ति को नियमित रखना, सावधानीपूर्वक उन कार्यों को करना, गुप्त है। - काय योग - शरीरधारी आत्मा की शक्ति के व्यापार विषय को काययोग कहते हैं; अथवा जिसमें आत्म प्रदेशों का संकोच - विकोच हो, उसे काय कहते हैं और उनके द्वारा होने वाला योग काययोग कहलाता है। अथवा औदारिक आदि सात प्रकार के कार्यों में जो अन्वय रूप से रहता है, उसे सामान्यतः काय कहते हैं और उस काय से उत्पन्न आत्मप्रदेश परिस्पन्द लक्षण वीर्य के द्वारा जो योग होता है वह काययोग है। कायोत्सर्ग - शरीर के ममत्व का परित्याग कर आत्मस्थ होना अथवा जिनेश्वर देवों के गुणों का मन में उत्कीर्तन करना । काय स्थिति - एक काय को अर्थात् औदारिक आदि शरीर को न छोड़कर उसके रहने तक विविध भवों को ग्रहण करते हुए जितना काल व्यतीत होता है, वह कायस्थिति है। कारक - सम्यक्त्व - जिनोक्त क्रियाओं-सामायिक प्रतिक्रमणादि को करना कारक सम्यक्त्व है। काल- जो पंच वर्ण, पंच रस, दो गंध, अष्ट स्पर्श से रहित, छः प्रकार की हानिवृद्धि स्वरूप, अगुरु- लघु गुण से संयुक्त होकर वर्तना- स्वयं परिणमते हुए द्रव्यों के परिणमन में सहकारिता-लक्षण वाला है, वह काल है। कीलिका संहनन - हड्डियों की रचना में मर्कटबंध और वेष्टन न हो, किन्तु कील से हड्डियाँ जुडी हो, उसे कीलिका संहनन कहते हैं। कांक्षा- इस लोक संबंधी और परलोक संबंधी विषयों की आकांक्षा कांक्षा है, यह सम्यग्दर्शन का अतिचार है। किट्टीकरण - किट्टी का अर्थ कृश करना है। अतः जिस करण में पूर्व स्पर्धकों और अपूर्व स्पर्धकों में से दलिकों को ले-लेकर उनके अनुभाग को अनन्त गुणहीन करके अंतराल से स्थापित किया जाता है, उसको किट्टीकरण कहते हैं। किट्टीवेदन काल - किट्टियों के वेदन करने, अनुभव करने के काल को किट्टीवेदन काल कहते हैं। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only ५२९ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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