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________________ करण अपर्याप्त - पर्याप्त या अपर्याप्त नामकर्म का उदय होने पर भी जब तक करणों-(शरीर, इंद्रिय आदि पर्याप्तियों) की पूर्णता न हो तब तक वे जीव करण अपर्याप्त कहलाते हैं। करणानुयोग - लोक-आलोक के विभाग, युगों के परिवर्तन और चार गतियों के स्वरूप को स्पष्ट दिखलाने वाले ज्ञान को करणानुयोग कहा जाता है। करण पर्याप्त - करण पर्याप्त के दो अर्थ हैं। करण का अर्थ है इन्द्रिय। जिन जीवों ने इंद्रिय पर्याप्ति पूर्ण कर ली है, वे करण पर्याप्त हैं। चूंकि आहार और शरीर पर्याप्ति पूर्ण किए बिना इंद्रिय पर्याप्ति पूर्ण नहीं हो सकती है, इसलिए तीनों पर्याप्तियाँ ली गई हैं अथवा जिन जीवों ने अपनी योय पर्याप्तियाँ पूर्ण कर ली हैं वे करण पर्याप्त कहलाते हैं। करण लब्धि - अनादिकालीन मिथ्यात्व-ग्रंथि को भेदने में समर्थ परिणामों या शक्ति का प्राप्त होना। कषाय - जो आत्मा के गुणों को कषे (नष्ट करें) अथवा जो जन्म-मरण रूपी संसार को बढ़ावें। कष का अर्थ है जन्म-मरणरूप संसार, उसकी आय अर्थात् प्राप्ति जिससे हो उसे कषाय कहते हैं। अथवा - जो सम्यक्त्व, देश चरित्र, सकलचरित्र और यथाख्यात चरित्र को न होने दे वह कषाय कहलाता है। कषायकुशील - अन्य कषायों के उदय पर विजय पाकर भी जो केवल संज्वलन कषाय के वशीभूत हैं, वे कषाय-कुशील कहलाते हैं। कषाय समुद्घात - कषाय की तीव्रता से जीव के प्रदेश शरीर से तिगुना फैलाए जाते हैं, वह कषाय समुद्घात है। कषाय संलेखना - परिणामों की विशुद्धि का नाम कषाय संलेखना है, जिसमें क्रोधादि कषायों को कृश किया जाता है। कापोतलेश्या - कबूतर के गले के समान रक्त तथा कृष्ण वर्ण के लेश्याजातीय पुद्गलों के सम्बन्ध से आत्मा के ऐसे परिणामों का होना कि जिससे मन, वचन, काया की प्रवृत्ति में वक्रता ही वक्रता रहे, सरलता न रहे। दूसरों को कष्ट पहुंचे ऐसे भाषण करने की प्रवृत्ति, नास्तिकता रहे। इन परिणामों को कापोतलेश्या कहा जाता है। कार्मण शरीर - जो सभी शरीरों की उत्पत्ति का बीजभूत शरीर है - उनका कारण है - वह कार्मण शरीर है। अथवा ज्ञानावरण आदि कर्मों से बना हुआ शरीर। कार्मण काययोग - कार्मण काय के द्वारा होने वाला योग अर्थात् अन्य औदारिक आदि शरीर वर्गणाओं के बिना सिर्फ कर्म से उत्पन्न हुए वीर्य-शक्ति के निमित्त से आत्मप्रदेश-परिस्पन्दन रूप प्रयल होना कार्मण काय योग कहलाता है। कार्मण शरीर की सहायता से होने वाली आत्मशक्ति की प्रवृत्ति को कार्मणयोग कहते हैं। ५२८ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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