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औपशमिक चारित्र - चारित्र मोहनीय की पच्चीस प्रकृतियों के उपशम से व्यक्त होने वाला स्थिरात्मक आत्म परिणाम।
औदयिक भाव - कर्म के उदय से उत्पन्न भाव औदयिक भाव है। कंदर्प - राग के आधिक्य से हास्य-मिश्रित अशिष्ट वचनों को बोलना।
कथा - तप व संयम गुणों के धारक जो समस्त प्राणियों के हितार्थ जिन पवित्र अख्यानों का निरूपण करते हैं, वह कथा है।
कनकावली तप - स्वर्णमणिओं के भूषण विशेष आकार की कल्पना से किया जानेवाला तप। इसका क्रम यंत्र के अनुसार चलता है। एक परिपाटी में एक वर्ष पाँच महिने
और १२ दिन लगते हैं। पहली परिपाटी के पारणे में विकृति-वर्जन आवश्यक नहीं है। दूसरी में विकृति का त्याग, तीसरी में लेप का त्याग और चौथी में आयंबिल किया जाता है। (चित्र नं. २) सब मिलाकर चार परिपाटी में ५ वर्ष नव मास अठारह दिन लगते हैं।
कन्दमूल - एक सूई के अग्रभाग पर आ जाए इतने निगोद में असंख्यात प्रतर हैं, एक २ प्रतर में असंख्यात श्रेणियाँ हैं, एक श्रेणी में असंख्यात गोले हैं, एक एक गोले में असंख्यात शरीर हैं और एक शरीर में अनंत जीव हैं।
कर्म - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से जीव द्वारा जो कुछ किया जाता है उसे कर्म कहते हैं, अर्थात् आत्मा की रागद्वेषात्मक क्रिया से आकाश प्रदेशों में विद्यमान अनन्तानन्त कर्म के सूक्ष्म पुद्गल चुम्बक की तरह आकर्षित होकर आत्म-प्रदेशों से संश्लिष्ट हो जाते हैं, उन्हें कर्म कहते हैं। इनके ८ भेद हैं - १) ज्ञानावरणीय २) दर्शनावरणीय ३) वेदनीय ४) मोहनीय ५) आयु ६) नाम ७) गोत्र ८) अन्तराय।
कर्म उदीरणा - जो कर्म सामान्यतः भविष्य में फल देने वाले हैं, उन्हें तपादि द्वारा उसी समय उदय में फलोन्मुख कर झाड़ देना।
कर्म भूमि - जिन क्षेत्रों में असि (शस्त्र और युद्ध विद्या), मसि (लेखन और पठन पाठन) और कृषि तथा आजीविका के दूसरे साधन रूप कर्म (व्यवसाय) हों, उन्हें 'कर्मभूमि' कहते हैं। कर्मभूमि पन्द्रह हैं। उनमें से जम्बूद्वीप में एक भरत, एक ऐरवत और एक महाविदेह हैं। धातकी खण्ड द्वीप में दो भरत, दो ऐरवत, और दो महाविदेह हैं। अर्द्ध पुष्कर द्वीप में दो भरत; दो ऐवत और दो महाविदेह हैं, इस प्रकार पन्द्रह कर्मभूमि हैं। इन्हें भोगभूमि कहते हैं।
कर्मवर्गणा - कर्म स्कन्धों का समूह।
कर्मरूप परिणमन - कर्म पुद्गलों में जीव के ज्ञान, दर्शन आदि स्वाभाविक गुणों को आवरण करने की शक्ती का हो जाना।
करण - जीव की विशिष्ट शक्ति कर्म बंधादि के परिणमन करने में समर्थ होती है, अथवा जीव का परिणाम विशेष करण है।
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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