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________________ चतुर्गति नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव आदि भवों में आत्मा की संसृति । चरणानुयोग - गृहस्थ एवं श्रमणों के चरित्र की उत्पत्ति, वृद्धि एवं रक्षा के विधान करने वाले अनुयोग को चरणानुयोग कहते हैं। चक्षुदर्शन - चक्षु के द्वारा होने वाले पदार्थ के सामान्य धर्म के बोध को चक्षुदर्शन कहते हैं। चतुः स्थानिक - कर्म प्रकृतियों में स्वाभाविक अनुभाग से चौगुने अनुभाग फलजनक शक्ति का पाया जाना। चारण लब्धि - जिस लब्धि से आकाश में उड़ने की विशिष्ट शक्ति प्राप्त होती है, वह चारण लब्धि है। इस लब्धि के दो भेद हैं- १) जंघाचरण और २) विद्याचरण चारित्र मोहनीय - आत्मा के स्वभाव की प्राप्ति या उसमें रमण करना चरित्र है। यह आत्मा का गुण है। आत्मा के इस चरित्र गुण को घात करने वाले कर्म को चरित्र मोहनीय कहते हैं। चूलिका - चोरासी लग्न चूलिकांग की एक चूलिका होती है। चूलिकांग - चोरासी लाख नयुत का एक चूलिकांग होता है। चौबीसी - अवसर्पिणी या उत्सर्पिणी काल में होने वाले २४ तीर्थंकर | चंद्रप्रज्ञप्ति - चंद्रमा के, आयु प्रमाण, परिवार, चंद्र का गमन विशेष, उससे उत्पन्न होने वाले दिन रात्रि का प्रमाण आदि की जिनमें प्ररूपणा है, वह । च्यवन ऊपर से गिरकर नीचे आना। ज्योतिष्क और वैमानिक देव आयुष्य पूर्ण कर ऊपर से नीचे आकर उत्पन्न होते हैं इसलिए इनका मरण च्यवन कहलाता है। वैमानिक ओर ज्योतिषी देवों के मरण को च्यवन या च्युति कहते हैं। छट्ठ तप- दो दिन का उपवास, बेला। छन्द्यस्थ - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय को छद्म कहते हैं। इसमें जो रहते हैं, वह छद्मस्थ कहलाते हैं। जब तक आत्मा को केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं होती तब तक वह छद्यस्थ ही कहलाती है। - छेद - जिन बाह्य क्रियाओं से धर्म में बाधा न आती हो तथा निर्मलता में वृद्धि होती हो, व्रत, समिति, गुप्ति, विभाग, खंड, विनाश, प्रायश्चित, अथवा संयम की विशुद्धि हेतु दोष लगने पर उसका परिष्कार करने का नाम छेद है। ५३४ छेदोपस्थापनीय संयम - जिस चरित्र में पूर्व पर्याय को छेदकर, उसे खण्डित कर महाव्रतों में स्थापित किया जाता है, वह छेदोपस्थापन चरित्र है । अथवा पूर्व संयम पर्याय को छेदकर फिर से उपस्थापन (व्रतारोपण) करना । - जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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