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________________ आलोचना - गुरु के सम्मुख दस दोषों से रहित अपने प्रमाद जनित दोषों का निवेदन करना। आशातना - ज्ञानियों की निंदा करना, उनके बारे में झूठी बातें कहना, मर्मच्छेदी बातें लोक में फैलाना, उन्हें मार्मिक पीडा हो ऐसा कपट-जाल फैलाना आशातना है। आसन्न भव्य - निकट काल में ही मोक्ष को प्राप्त करने वाला जीव। आसेवना कुशील - संयम के विपरीत आराधना या असंयम का सेवन करने वाले श्रमण को आसेवना कुशील कहते हैं। ___ आस्रव - शुभाशुभ कर्मों के आगमन द्वार को आस्रव कहते हैं। शुभाशुभ परिणामों को उत्पन्न करने वाली प्रवृत्तियों को द्रव्यास्रव और कर्मों के आने के द्वार रूप जीव के शुभाशुभ परिणामों को भावास्रव कहते हैं। आहार - शरीर नाम कर्म के उदय से देह, वचन और द्रव्यमन बनने योग्य नो कर्म वर्गणा का जो ग्रहण होता है, उसे आहार कहते हैं। दूसरे शब्दों में ३ शरीर और ६ पर्याप्तियों की जीव की शक्ति विशेष की परिपूर्णता। आहारक - ओज, रोम और कवल इनमें से किसी भी प्रकार के आहार को ग्रहण करने वाले जीव को आहारक कहते हैं।अथवा समय-समय जो आहार करे उसे आहारक कहते हैं। ___ आहारक-शरीर - चतुदर्श पूर्वधर मुनि विशिष्ट कार्य हेतु, जैसे किसी भी वस्तु में संदेह समुत्पन्न हो जाए या तीर्थकर के ऋद्धि दर्शन की इच्छा हो जाए तब आहारक वर्गणा द्वारा जो स्व-हस्त प्रमाण पुतला (शरीर) बनाते हैं वह आहारक शरीर है। इभ्य - जिसके पास संचित सुवर्ण-रत्नादि राशि है। इत्वर-अनशन - परिमित समय तक के लिए जो त्याग किया जाता है, वह इत्वर अनशन है। भ. ऋषभदेव के समय में उत्कृष्ट १२ महिने से अधिक (संवत्सर) अनशन तप था। भ. अजीत से लेकर भ. पार्श्व तक उत्कृष्ट ८ मास का अनशन था। भ. महावीर के समय ६ मास का अनशन था। ईर्यापथ क्रिया - ईर्या का अर्थ योग है। एकमात्र उस योग के द्वारा जो कर्म आता है, वह ईर्यापथ-कर्म है। ईर्यापथ-कर्म की कारणभूत क्रिया ईर्यापथ है। ईर्यासमिति - ज्ञान, दर्शन एवं चरित्र की अभिवृद्धि के निमित्त युग परिमाण भूमि को दिन में सम्यक् प्रकार से निहारते हुए विवेकपूर्वक चलना तथा स्वाध्याय व इंद्रियों के विषयों का वर्जन करते हुए चलना। ईहा - अवग्रह के द्वारा ग्रहण किए गए सामान्य विषय को, विशेष रूप से निश्चय करने के लिए जो विचारणा होती है, उसे ईहा कहा जाता है। इसका काल अन्तर्मुहूर्त है। जैसे-यह रस्सी है या सर्प है। जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व ५२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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