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इंगिनी अनशन
आगम विहित एक क्रिया विशेष का नाम इंगिनी है। उसे स्वीकार करने वाला साधक आयु की हानि को जानकर जीवजंतु रहित एकांत स्थान में रहता हुआ चारों प्रकार के आहार का परित्याग करता है। वह छाया से उष्ण प्रदेश में व उष्ण से छाया प्रदेश में संक्रमण करता हुआ सावधान रहकर एवं ध्यान में रत रहकर प्राणों का परित्याग करता है।
इंद्र - अन्य देवों में नहीं पाई जानेवाली असाधारण महिमादि ऋद्धियों के धारक ऐसे देवाधिपति ।
इंद्रिय - परम ऐश्वर्य को प्राप्त करने वाली आत्मा को इंद्र के लिंग या चिह्न को इंद्रिय कहते हैं। अथवा जो जीव को अर्थ उपलब्धि में निमित्त होती है। अथवा आवरण कर्म का क्षयोपशम होने पर स्वयं पदार्थ का ज्ञान करने में असमर्थ स्वभाव रूप आत्मा को पदार्थ का ज्ञान कराने में निमित्त-भूत कारण, अथवा जिसके द्वारा आत्मा को जाना जाए अथवा अपने-अपने स्पर्शादिक विषयों में दूसरे की (रसना आदि की) अपेक्षा न रखकर इन्द्र के समान जो समर्थ एवं स्वतंत्र हों उन्हें इन्द्रिय कहते हैं।
इंद्रिय संयम - पाँचों इंद्रियों के विषयों में आसक्ति का अभाव इंद्रिय संयम है। उच्च गोत्र - जिस कर्म के उदय से जीव उत्तम कुल में जन्म लेता है, वह उच्च गोत्र
कर्म है।
उच्छ्वास निश्वास - संख्यात आवली प्रमाण काल को उच्छ्वास निश्वास कहते
हैं।
उत्तर प्रकृति - कर्मों के मुख्य भेदों के अवान्तर भेद ।
उत्तर गुण - मूलगुण की रक्षा के लिए की जानेवाली प्रवृत्तियाँ मूलगुणों से भिन्न पिंड - विशुद्धि, समिति, भावना, तप प्रतिमा, अभिग्रह आदि साधुओं के उत्तरगुण हैं। और श्रावक के लिए दिशात्रतादि ।
उत्कटासन - दोनों घुटनों के मध्य में मस्तक झुकाकर ठहरना उत्कट आसन है। उदय - उदयकाल आने पर शुभाशुभ फल का भोगना उदय कहलाता है। अर्थात् बांधी गई कर्म की स्थिति के अनुसार अथवा अपवर्तना, उद्वर्तना आदि करणों से कम हुई अथवा बढ़ी हुई स्थिति के अनुसार यथासमय उदयावली में प्राप्त कर्म का वेदन होना उदय कहलाता है अथवा काल प्राप्त कर्म परमाणुओं के अनुभव करने को उदय कहते हैं। अबाधाकाल व्यतीत हो चुकने पर जिस कर्म के फल का अनुभव होता है, उस समय को उदयकाल कहते हैं। अथवा कर्म के फलभोग के नियतकाल को उदयकाल कहा जाता है।
उदयकाल
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उदीरणा - उदयकाल प्राप्त हुए बिना ही आत्मा के सामर्थ्य विशेष से कर्मों को उदय में लाना उदीरणा है। अर्थात आबाधाकाल व्यतीत हो चुकने पर भी जो कर्मदलिक
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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