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आतप - सूर्य आदि के निमित्त से जो उष्ण प्रकाश होता है वह आतप है। आतापना - ग्रीष्म, शीत आदि से शरीर को तापित करना। आत्म-तत्व - मन की विक्षेप रहित अवस्था का नाम आत्मतत्त्व है।
आत्म-प्रवाद - आत्मा के अस्तित्व, नास्तित्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि धर्म एवं षट्जीवनिकायों के प्रतिपादित करने वाले पूर्व का नाम आत्म प्रवाद है।
__ आत्मांगुल - भरत, ऐरावत क्षेत्रों में समुत्पन्न विभिन्न काल वर्ती मानवों के अंगुल को उस समय के अंगुल प्रमाण को आत्मांगुल कहा जाता है। यह प्रत्येक व्यक्ति का अपना अंगुल होता है।
आनुपूर्वी - जिस कर्म के उदय से जीव विग्रहगति में अपने उत्पत्ति स्थान पर पहुंचता है, उसे आनुपूर्वी कहते हैं।
_आयंबिल - जिसमें विगय-घृत, दही, दूध, तेल, और मिष्टान त्यागकर केवल दिन में एक बार अन्न खाया जाए और गरम पानी पिया जाए वह आयंबिल है।
आर्य - जो गुणों से युक्त हो, अथवा गुणीजन जिन की सेवा शुश्रुषा करते हैं, वे आर्य!
आयु कर्म - जिस कर्म के अस्तित्व से जीव जीता है और क्षय होने से मरता है, उसे आयु-कर्म कहते हैं।
आवली - असंख्यात समय की एक आवली होती है। आवश्यक- जो अवश्य ही करने योग्य है, वह आवश्यक है।
आवीचि मरण - 'वीचि' नाम तरंग का है। तरंग के समान जो निरंतर आयुकर्म के निषकों का प्रतिक्षण क्रम से उदय होता है, उसके अनुभव को आवीचि मरण कहते हैं।
आराधक - जो पांच इंद्रियों को अपने अधीन रखता है, मन, वचन, काय की प्रवृत्ति में पूर्ण सावधान है, तप, नियम व संयम में जो सतत संलग्न है, वह आराधक कहलाता हैं।
आरंभ - जीवों को कष्ट पहुँचाने वाली जो प्रवृत्ति है, वह आरंभ है।
आरंभिकी क्रिया - पृथ्वीकाय आदि जीवों के संहार रूप आरंभ ही जिस क्रिया का रूप हो, वह आरंभिकी क्रिया है।
आलंबन - संपूर्ण लोक ध्यान के आलंबनों से भरा है। ध्याता श्रमण जिस किसी भी वस्तु को आधार बनाकर मन से चिंतन करता है, वही वस्तु उसके ध्यान का आलंबन बन जाती है।
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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