SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 580
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अल्पबहुत्व - पदार्थों का परस्पर न्यूनाधिक-अल्पाधिक भाव। अश्वकर्णकरण काल - घोड़े के कान को अश्वकर्ण कहते हैं। यह मूल में बड़ा और ऊपर की ओर क्रम से घटता हुआ होता है। इसी प्रकार जिस करण में क्रोध से लेकर लोभ तक चारों सज्वलनों का अनुभाग उत्तरोत्तर अनंत-गुणहीन हो जाता है, उस करण को अश्वकर्ण कहते हैं। इसके आदोलकरण और उद्वर्तनापवर्तनकरण ये दो नाम और देखने को मिलते हैं। __ अश्रुत निश्रित - बिना शास्त्राभ्यास के स्वाभाविक विशिष्ट क्षयोपशम के वश, जो औत्पातिकी, वैनयिकी आदि चार बुद्धि से विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न होता है, वह अश्रुतनिश्रित अभिनिबोधिक मतिज्ञान है। असंख्य प्रदेशी - वस्तु के अविभाज्य अंश को प्रदेश कहते हैं। जिस में ऐसे प्रदेशों की संख्या असंख्य हो, वह असंख्य प्रदेशी कहलाता है। प्रत्येक जीव असंख्य प्रदेशी होता है। असंख्याताणु वर्गणा - असंख्यात प्रदेशी स्कन्धों की वर्गणा। असंयम - षट्काय के जीवों का घात करने एवं इन्द्रिय और मन को नियंत्रित न रखने का नाम असंयम है। असंज्ञी - जो जीव मन के न होने से शिक्षा, उपदेश और आलाप आदि ग्रहण न कर सके। अथवा जिन्हें मनोलब्धि प्राप्त नहीं है अथवा जिन जीवों के बुद्धिपूर्वक इष्टअनिष्ट में प्रवृत्ति निवृत्ति नही होती है, वे असंज्ञी हैं। असत् - उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य स्वरूप से विपरीत सत्-असत् है। असाता वेदनीय - जिस कर्म के उदय से आत्मा को अनुकूल विषयों की अप्राप्ति और प्रतिकूल इन्द्रिय विषयों की प्राप्ति में दुःख का अनुभव होता है, उसे असातावेदनीय कर्म कहते हैं। अस्ति काय - 'अस्ति' शब्द का अर्थ है - 'प्रदेश' और 'काय' शब्द का अर्थ है 'राशि' - प्रदेशों की राशी।प्रदेशों की राशी वाले द्रव्यों को 'अस्तिकाय' कहते हैं। अस्तिकाय पाँच हैं। यथा - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुदुगलास्तिकाय। यह लोक पाँच अस्तिकाय रूप हैं। धर्मास्तिकाय 'गति' में सहायक है। अधर्मास्तिकाय 'स्थिति' में सहायक है। आकाशास्तिकाय 'अवकाश' या 'स्थान' में और जीवास्तिकाय 'उपयोग' में सहायक है। पुद्गलास्तिकाय सडन-गन-पूरण-विध्वंसन में सहायक है। प्रत्येक ‘अस्तिकाय' के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण की अपेक्षा पांच-पांच भेद हैं। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग ५१९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy