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(५) दुःषम और (६) दुःषम-दुःषमा अवसर्पिणीकाल १० कोडाकोडी सागरोपम का होता है।
___अवाय - ईहा के द्वारा ग्रहण किए गए पदार्थ के विषय में कुछ अधिक जो निश्चयात्मक ज्ञान होता है, उसे अवाय कहते हैं। जैसे यह रस्सी ही है, सर्प नहीं। इसका समय अन्तर्मुहूर्त है।
अविग्रह गति - विग्रह का अर्थ रुकावट या वक्रता है। जिससे जीव की गति वक्र या मोड़ रहित होती है, वह अविग्रह गति है। एक समय वाली गति अविग्रह गति है।
अविपाक निर्जरा- जिस कर्म का उदय संप्रति प्राप्त नहीं हुआ है, उसे तपश्चरण आदि रूप औपक्रमिक क्रिया विशेष के सामर्थ्य से बलपूर्वक उदयावलि में प्रवेश कराके आम्र आदि फलों के पाक के सदृश वेदन करना अविपाक निर्जरा है।अथवा -उदयावलि के बाहर स्थित कर्म को तप आदि क्रियाविशेष के सामर्थ्य से उदयावली में प्रविष्ट कराके अनुभव किया जाना।
__ अविभाग प्रतिच्छेद - वीर्य शक्ति के अविभागी अंश या भाग। वीर्य परमाणु, भाव परमाणु इसके दूसरे नाम हैं।
अविरति - हिंसादि पापों से निवृत्त होने का नाम विरति है और इस प्रकार की विरति का अभाव अविरति है। अथवा दोषों से विरत न होना। यह आत्मा का वह परिणाम है जो चारित्र ग्रहण करने में विघ्न डालता है।
अविचार - व्यंजन, अर्थ, योग, से रहित ध्यान (व्यंजन-प्रदेश परिणति से प्राप्त अवस्था; अर्थ = प्रदेशत्व को छोड़ अन्य समस्त गुणों की परिणति; योग = मन, वचन, काय)
अव्यवहार राशि - जो जीव अनंतकाल से निगोद में ही पड़े हों, जिन्होंने कभी निगोद को नहीं छोड़ा हो, उन्हें अव्यवहार राशि कहते हैं।
अव्याबाध - जो अनुपम, अपरिमित, अविनश्वर, कर्ममल से रहित, जन्म, जरा, रोग, भय आदि की बाधा से रहित सुख है, वह अव्याबाधा सुख है।
अरिहंत - राग द्वेष रूप शत्रुओं को पराजित करने वाले सशरीर परमात्मा व विशिष्ट महिमा - संपन्न पुरूष।
अरूपी - जो शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श रहित हैं, वे अरूपी हैं।
अलोक - लोक के बाहर जितना भी अनंत प्रकाश है, वह सब अलोकाकाश अथवा अलोक कहलाता है।
अल्पतर बंध - अधिक कर्म प्रकृतियों का बंध करके कम प्रकृतियों के बंध करने को अल्पतर बंध कहते हैं।
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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