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अभव्य - वे जीव जो अनादि तथाविध पारिणामिक भाव के कारण किसी भी समय मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता ही नहीं रखते।
अभयदान - मरण आदि के भय से ग्रस्त जीवों की रक्षा करना।
अभिगम - श्रमण के स्थान में प्रविष्ट होते ही श्रावक द्वारा आचरण करने योग्य पाँच विषय इस प्रकार हैं- (१) सचित्त द्रव्यों का त्याग (२) अचित्त द्रव्यों की मर्यादा करना। (३) उत्तरासंग करना । (४) साधु दृष्टिगोचर होते ही करबद्ध होना । (५) मन को एकाग्र करना ।
अभिग्रहिक मिथ्यात्व - तत्त्व की परीक्षा किए बिना ही किसी एक सिद्धांत का पक्ष लेकर अन्य पक्ष का खंडन करना ।
अभिग्रहीत मिथ्यात्व - कारणवश एकान्तिक कदाग्रह से होने वाले पदार्थ के अयथार्थ श्रद्धान को अभिगृहीत मिथ्यात्व कहते हैं।
अभिनिवेशिक मिथ्यात्व - अपने पक्ष को असत्य जानकर भी स्थापना करने के लिए दुर्निवेशक (दुराग्रह) करना ।
अभीक्ष्ण- सतत, निरन्तर, सम्यग्ज्ञान में नित्य लीन, सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति में सतत
निमग्न।
अमनस्क - द्रव्य-भाव स्वरूप मन से रहित जीवों को अमनस्क कहते हैं। अमूर्त - जीव-जिन विषयों को इन्द्रियों से ग्रहण कर सकता है, वे मूर्त होते हैं, उनसे भिन्न शेष सभी अमूर्त हैं।
अयोगकेवली - जो शुक्ल ध्यान रूप अग्नि या घातिया कर्मों को नष्ट करके योग से रहित हो जाते हैं, वे अयोगी केवली या अयोगकेवली कहलाते हैं।
अवग्रह - पदार्थ और उसे विषय करने वाली इंद्रियों का योग्य देश में संयोग होने के अनंतर उसका जो सामान्य प्रतिभास रुप दर्शन होता है, उसके अनंतर वस्तु का जो प्रथम बोध होता है, वह अवग्रह है।
अवधिज्ञान - मन और इन्द्रिय की अपेक्षा न रखते हुए केवल आत्मा के द्वारा रूपी अर्थात् मूर्त-द्रव्य का जो ज्ञान होता है. उसे अवधिज्ञान कहते हैं।
अवसर्पिणीकाल कालचक्र का वह विभाग जिसमें प्राणियों के संहनन और संस्थान क्रमशः हीन होते हैं, आयु और अवगाहना घटती जाती है तथा उत्थान, कर्म बल, वीर्य, पुरुषाकार तथा पराक्रम का ह्रास होता जाता है। इस समय में पुद्गलों के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श भी हीन होते जाते हैं। शुभ भाव घटते हैं ओर अशुभ भाव बढ़ते हैं। इसके छः विभाग हैं - ( १ ) सुषम- सुषम (२) सुषम (३) सुषम- दुःषम (४) दुःषम- सुषम
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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