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अपवर्तनीय आयु - बाह्य निमित्त से जो आयु कम हो जाती है, उसको अपवर्तनीय आयु या अपवर्त्य आयु कहते हैं। तात्पर्य यह है कि, जल में डूबने, शस्त्रघात, विषपानादि बाह्य कारणों से १००-५० आदि वर्षों के लिए बांधी गई आयु को अंतर्मुहूर्त में भोग लेना आयु का अपवर्तन है। इस आयु को जनसाधारण अकालमृत्यु भी कहते हैं।
अपरविदेह - मेरु पर्वत से पश्चिम की ओर जो विदेह क्षेत्र का आधा भाग अवस्थित है, वह अपरविदेह है।
अपरावर्तमाना प्रकृति - किसी दूसरी प्रकृति के बंध, उदय अथवा दोनों के बिना जिस प्रकृति के बंध, उदय अथवा दोनों होते हैं। ____अपरिग्रह - मोह के उदय से "यह मेरा है" इस प्रकार की ममत्व बुद्धि परिग्रह है, और परिग्रह से निवर्त होना अपरिग्रह है।
अपरिग्रह महावत - धनधान्यादि सर्व प्रकार का यावज्जीवन मन-वचन-काया से त्याग करना।
अपूर्वकरण - वह परिणाम, जिसके द्वारा जीव राग-द्वेष की दुर्भेद्य ग्रंथी को तोड़कर लांघजाता है।
अपूर्व स्थिति बन्ध - पहले की अपेक्षा अत्यन्त अल्प स्थिति के कर्मों का बांधना अपूर्व स्थिति बंध कहलाता है।
अप्रत्याख्यान - जिन कर्म के उदय से अल्प प्रत्याख्यान भी न हो सके। अप्रत्याख्यानावरण कषाय - जो कषाय आत्मा के देशविरति गुण-चरित्र
(श्रावकपन) का घात करे, अर्थात् जिसके उदय से देशविरति आंशिक त्यागरूप अल्प प्रत्याख्यान न हो सके, उस कषाय को अप्रत्याख्यानावरण कहते हैं। इस कषाय के प्रभाव से श्रावक धर्म की प्राप्ति नहीं होती।
अप्राप्यकारी - पदार्थों के साथ बिना संयोग किए ही पदार्थ का ज्ञान करना।
अप्रमत्तसंयत - सर्व प्रकार के प्रमादों से रहित और व्रत, गुण, शील से युक्त, सध्यान में लीन, ऐसे श्रमण अप्रमत्तसंयत हैं।
अप्रशस्त विहायोगति - जिस कर्म के उदय से ऊंट, गर्दभ, शृगाल आदि के सदृश निंद्य विचार पैदा हो, वह अप्रशस्त विहायोगति है।
अबंधकाल - पर-भव सम्बन्धी आयुकर्म के बंधनकाल से पहले की अवस्था।
अबंध प्रकृति - विवक्षित गुणस्थान में वह कर्म प्रकृति न बंधे किन्तु आगे के स्थान में उस कर्म का बंध हो, उसे अबंध प्रकृति कहते हैं।
अबाधाकाल - बंधन के पश्चात् भी कर्म जितने समय तक बाधा नहीं पहुंचाता उदय में नहीं आता है - उतना समय अबाधाकाल कहलाता है। ५१६
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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