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________________ ९ स्तोक (४९ प्राण) = १ लव। और ७७ लव (७७३ प्राण) = १ मुहूर्त अथवा दो घड़ी (४८ मिनिट) इससे कम काल को अन्तर्मुहूर्त कहते हैं। उसे भिन्न मुहूर्त भी कहते हैं। अन्तरात्मा - आठ मद रहित होकर देह और जीव के पार्थक्य को जानने वाला। अन्तराय - ज्ञानाभ्यास के साधनों में विन डालना विद्यार्थियों के लिये प्राप्त होने वाले अभ्यास के साधनों की प्राप्ति न होने देना आदि अन्तराय कहलाता है। अन्तराय कर्म - जो कर्म आत्मा की दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य रूप शक्तिओं का घात करता है या दानादि में अन्तरायरूप हो, उसे अन्तराय कर्म कहते हैं। अन्यलिंग सिद्ध - परिव्राजक आदि अन्य लिंगों से सिद्ध होने वाले जीवों को अन्यलिंग सिद्ध कहा जाता है। अपकर्षण - कर्म प्रदेशों की स्थितियों को हीन करने का नाम अपकर्षण है। अपकायिक जीव-जल ही जिनका शरीर हो, वह अप्कायिक जीव कहलाते हैं। अप्रतिपाति अवधि ज्ञान - जो अवधिज्ञान केवलज्ञान की प्राप्ति तक स्थित रहता है और अलोक के एक प्रदेश को भी देखता है, वह अप्रतिपाती अवधिज्ञान है। अपध्यान - राग, द्वेष के वशीभूत होकर दूसरों के वध, बंधन, छेदन एवं पापकारी विचार करना अपध्यान है। अपर्याप्ति - अपर्याप्ति नाम कर्म के उदय से युक्त जो जीव है, वह अपर्याप्त है और पर्याप्तियों की अपूर्णता या उनकी अर्धपूर्णता का नाम अपर्याप्ति है। ___ अपर्याप्तक - जिस जीव की पर्याप्तियां पूरी न हुई हों अर्थात् जिस जीव ने स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूरा न बांध लिया हो और जो स्वयोग्य पर्याप्तियां पूरी होने से पहले ही मरने वाला हो, वह अपर्याप्तक कहलाता है। अपर्याप्तक अवस्था में मरने वाले जीव तीन पर्याप्तियां पूर्ण करके चौथी (श्वासोच्छ्वास) पर्याप्ति अधूरी रहने पर ही मरते है; पहले नहीं। क्योंकि आगामी भव की आयु बांध कर ही जीव मृत्यु प्राप्त करते हैं और आयु का बन्ध उन्हीं जीवों के होता है, जिन्होंने आहार, शरीर और इन्द्रिय ये तीन पर्याप्तियाँ पूर्ण कर ली हों। अपवर्ग - जहाँ जन्म, जरा और मरणादि दोषों का अत्यंत विनाश हो जाता है, वह मोक्षा अपवर्तन - कमों की स्थिति एवं अनुभाग फलनिमित्तक शक्ति में हानि। अपवर्तना - बद्ध कमों की स्थिति तथा अनुभाग में अध्यवसाय क्षेत्र से कमी कर देना। अपवर्तनाकरण - जिस वीर्य विशेष से पहले बंधे हुए कर्म की स्थिति तथा रस घट जाते हैं, वह अपवर्तनाकरण है। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग ५१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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