________________
अनुभाग बंध - जैसे मोदक में स्निग्ध, मधुर आदि रस एक गुणे दुगुणे आदि रूप से रहता है, उसी प्रकार कर्म में भी जो देशघाती व सर्वघाती, शुभ या अशुभ, तीव्र या मंदादि रस होता है, वह अनुभाग बंध है। अथवा कर्मरूप गृहीत पुद्गल परमाणुओं की फल देने की शक्ति व उसकी तीव्रता मंदता का निश्चय करना अनुभाग बंध कहलाता है। अनुमान - साध्य के साथ अविनाभाव संबंध रखने वाले साधन से साध्य का ज्ञान अनुमान है।
अनुयोग - अर्थ के साधु सूत्र की जो अनुकूल योजना की जाती है, उसका नाम अनुयोग है, अथवा सूत्र का अपने अभिधेय में जो योग होता है, वह अनुयोग है।
-
अनुत्कृष्ट बंध - एक समय में कम उत्कृष्ट स्थिति बंध से लेकर जघन्य स्थिति बंध तक के सभी बंध |
अनुश्रेणी - लोक के मध्यभाग से लेकर ऊपर, नीचे और तिरछे रूप में जो आकाश प्रदेशों की पंक्ति अनुक्रम से अवस्थित है, वह अनुश्रेणी है।
अनुसारी - गुरु के उपदेश से किसी भी ग्रंथ आदि, मध्य या अंत के एक बीज पद को सुनकर उसके उपरिवर्ती समस्त ग्रंथ को जान लेना, अनुसारी कहलाता है।
अनेकांत - एक वस्तु में मुख्यता और गौणता की अपेक्षा अस्तित्व - नास्तित्व आदि परस्पर विरोधी धर्मों का प्रतिपादना
अन्नपान निरोध - मानव व पशु आदि प्राणियों को भोजन के समय पर उन्हें भोजन-पान न देना अन्न-पान निरोध नामक अतिचार है।
अन्यत्व भावना - जीव के शरीर से पृथक् होने पर उस शरीर से संबंद्ध पुत्र - मित्रकलत्रादि उससे सर्वथा भिन्न रहने वाले हैं; जीव का उनके साथ किसी भी प्रकार का संबंध नहीं है, इस प्रकार की भावना अन्यत्व भावना है।
अन्यथानुपपत्ति - साध्य के अभाव में हेतु घटित न होने को अन्यथानुपपत्ति कहा
है।
अन्तरकरण - एकआवली या अन्तरमुहूर्त प्रमाण नीचे और ऊपर की स्थिति को छोड़कर मध्य में से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण दलिकों को उठाकर उनको बंधने वाली अन्य सजातीय प्रकृतियों में प्रक्षेप करने का नाम अन्तरकरण है। इस अन्तरकरण के लिए जो क्रिया की जाती है और उसमें जो काल लगता है उसे भी उपचार से अन्तरकरण कहते हैं। अन्तर्मुहूर्त - मुहूर्त से एक समय कम और आवली से एक समय अधिक अर्थात् सबसे छोटा या सूक्ष्म काल 'समय' है। ऐसे असंख्य समय का एक श्वासोच्छ्वास काल होता है । हृष्टपुष्ट तन्दुरुस्त और निश्चित पुख्त वय के मनवाले उमर लायक मनुष्य के हृदय की एक धडकन में जो समय लगता है उसे प्राण कहते हैं। ऐसे ७ प्राण = १ स्तोक जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
५१४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org