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________________ अनर्थदंड विरति - जिन कार्यों के करने से अपना कुछ भी प्रयोजन सिद्ध न हो, केवल पाप का ही संचय हो, ऐसे पापोपदेश को छोड़ना या त्याग करना अनर्थदंड विरति कहलाता है। अपवर्तनीय आयु- जो आयु किसी भी कारण से कम न हो। जितने काल तक लिए बांधी गई है, उतने काल तक भोगी जाए, वह आयु अनपवर्तनीय या अनपवर्त्य आयु कहलाती है। अनभिग्रहिक मिथ्यात्व - सत्यासत्य की परीक्षा किए बिना ही सब पक्षों को बराबर समझना। अनशन - यावज्जीवन या परिमित काल के लिये तीन या चार प्रकार के आहार का त्याग करना। अनाचार - विषयों में आसक्ति रखने को अनाचार कहते हैं। अनादि अनन्त - जिस बंध या उदय की परम्परा का प्रवाह अनादि काल से निराबाध गति से चला आ रहा है, मध्य में न कभी विच्छिन्न हुआ है और न आगे कभी होगा, ऐसे बंध या उदय को अनादि अनंत कहते हैं। अनादि- सान्त - जिस बंध या उदय की परम्परा का प्रवाह अनादिकाल से बिना व्यवधान के चला आ रहा है लेकिन आगे व्युच्छिन्न हो जाएगा वह अनादि- सान्त है। अनाभोग - मिथ्यात्व - अज्ञानजन्य अतत्त्वरुचि । अनाहारक - ओज, रोम और कवल इनमें से किसी भी प्रकार के आहार को न करने वाले जीव अनाहारक होते हैं। अनिवृत्तिकरण गुणस्थान जिस गुणस्थान में विवक्षित एक समय के अंदर वर्तमान सर्वजीवों के परिणाम परस्पर भिन्न न होकर समान हो, वह अनिवृत्तिकरण गुणस्थान है। · अनिहरिम- जो साधु अरण्य में ही पादोपगमनपूर्वक देह त्याग करते हैं; उनका शव संस्कार के लिये कहीं बाहर नहीं ले जाया जाता; अतः वह देह त्याग अनिर्धारिम कहलाता है। अनुकंपा - तृषित, बुभुक्षित प्राणी को देखकर उसके दुःख से स्वयं दुःखी होना और मन में उसके उद्धार का चिंतन करना, अनुकंपा है। अनुप्रेक्षा - शरीर आदि के स्वभाव का चिंतन करना अथवा पठित अर्थ का मन से अभ्यास करना अनुप्रेक्षा स्वाध्याय है। अनुभाग - कषायजनित परिणामों के अनुसार कर्मों में जो शुभाशुभ रस प्रादुर्भूत होता है, वह अनुभाग है। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only ५१३ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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