SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 573
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अधर्मद्रव्य - जो स्वयं ठहरते हुए जीव और पुद्गल द्रव्यों के ठहरने में सहायक होता है। अधर्मास्तिकाय - जो स्वयं ठहरते हुए जीव और पुद्गल द्रव्यों के ठहरने में सहायक होता है। अधिगम - जिसके द्वारा पदार्थ जाने जाते है, ऐसे ज्ञान को अधिगम कहते हैं। अधिगम सम्यग्दर्शन - परोपदेश से, जीवादि तत्त्वों के निश्चय से जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है, वह अधिगम सम्यग्दर्शन है। अद्धाकाल - चंद्र, सूर्य आदि की क्रिया से परिलक्षित होकर जो समयादि रूप काल अढाई द्वीप में प्रवर्तमान है, वह अद्धाकाल है। अद्धापल्योपम - उद्धारपल्य के रोमखंडों में से प्रत्येक रोमखंड के कल्पना के द्वारा उतने खंड करें जितने सौ वर्ष के समय होते हैं और उनको पल्य में भरने को अद्धापल्य कहते हैं। अद्धापल्य में से प्रति समय रोमखंडों को निकालते-निकालते जितने काल में वह पल्य खाली हो, उसे अद्धापल्योपम कहते हैं। अध्यवसाय - स्थितिबंध के कारणभूत कषायजन्य आत्मपरिणाम। अद्धासमय - काल के अविभागी अंश को अद्धासमय कहते हैं। अद्धासागर - दस कोटाकोटी अद्धापल्योपमों का एक अद्धासागर होता है। अध्ययन - जो शुभ अध्यात्म (चित्त) को उत्पन्न करता है, वह अध्ययन हैं। अथवा जो निर्मल चित्त वृत्ति को लाता है, उसका नाम अध्ययन है; अथवा जिसके द्वारा बोध, संयम और मोक्ष की प्राप्ति होती है, वह अध्ययन है। अधुवसत्ता प्रकृति - मिथ्यात्व आदि दशा में जिस प्रकृति का सत्ता का नियम न हो यानी किसी समय सत्ता में हो और किसी समय सत्ता में न हो। अन्तः कोडाकोडी- कुछ कम एक कोडाकोडी। अनंत - आय रहित और निरंतर व्यय-सहित होने पर भी जो राशि कभी समाप्त न हो अथवा जो राशि एक मात्र केवलज्ञान का ही विषय हो, वह अनंत कहलाती है। अनंतकाय - जिन अनंत जीवों का एक साधारण शरीर हो और जो अपने मूल शरीर से छिन्न-भिन्न होकर पुनः उग जाते हैं। अनंतवीर्य - वीर्यांतराय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने पर जो अप्रतिहत सामर्थ्य उत्पन्न होता है, वह अनंतवीर्य है। अनन्तानुबंधी - जो जीव के सम्यक्त्व गुणों का घात करके अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण करावे, उस कषाय को अनन्तानुबंधी कहते हैं। ___ अनगार - अपवाद रहित ग्रहण की हुई व्रतचर्या। गृह रहित साधु। ५१२ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy