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अजघन्य बंध - एक समय अधिक जघन्य बंध से लेकर उत्कृष्ट बंध से पूर्व तक के सभी बंधा
अजीव - जिस में "चेतना" न हो, अर्थात् जड़ हो, उसे अजीव कहते हैं। __ अजीव क्रिया - अचेतन पुद्गलों के कर्म रूप में परिणत होने को अजीव क्रिया कहते हैं।
अट्ठम तप - तीन दिन का उपवास, तेला।
अणु - पुद्गल का ऐसा अविभागी अंश, जिसका आदि, मध्य, अन्त एक -दूसरे से भिन्न नहीं है, और जो अतीन्द्रिय है।
अणु - जो प्रदेश मात्र में होने वाले स्पर्शादि पर्यायों को उत्पन्न करने में समर्थ है, ऐसे पुद्गल के अविभागी अंश को अणु कहा जाता है।
__ अणुव्रत - हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह का यथाशक्ति एकदेशीय त्याग। यह शील गृहस्थ श्रावकों का है।
__ अतिक्रम- मानसिक शुद्धि के अभाव को अतिक्रम कहते हैं, अथवा दिग्व्रत में जो दिशाओं का प्रमाण स्वीकार किया गया है, उसका उल्लंघन करना, यह दिग्वत का अतिक्रम है। ___ अतिचार - व्रतभंग के लिए सामग्री एकत्रित करना या एक देश से व्रत का खंडन करना।
अतीन्द्रिय सुख - इंद्रिय और मन की अपेक्षा न रखकर आत्म मात्र की अपेक्षा से जो निर्बाध सुख प्राप्त होता है, वह अतीन्द्रिय सुख है।
अतिशय - सामान्यतया मनुष्य में होने वाली असाधारण विशेषताओं से भी अत्यधिक विशिष्टता।
__ अर्थावग्रह - विषय और इंद्रियों का संयोग पुष्ट हो जाने पर "यह कुछ है" ऐसा जो विषय का सामान्य बोध होता है उसे अर्थावग्रह कहते हैं। अथवा - पदार्थ के अव्यक्त ज्ञान को अर्थावग्रह कहते हैं। ___अधःप्रवृत्तिकरण - अधःप्रवृत्तिकरण परिणाम वे हैं, जो अधस्तन समयवर्ती परिणाम उपरितन समयवर्ती परिणामों के साथ कदाचित समानता रखते हैं उसका दूसरा नाम यथाप्रवृत्तकरण भी है। ये परिणाम अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में पाये जाते हैं।
अधःप्रवृत्तिकरण विशुद्धि - प्रथम समय के योग्य अधःप्रवृत्त परिणामों की अपेक्षा द्वितीय समय के योग्य परिणाम अनंत गुणे विशुद्ध होते हैं। इनकी अपेक्षा तृतीय समय के योग्य परिणाम अनंत गुणे विशुद्ध होते हैं। इस तरह अंतर्मुहूर्त के समयों के प्रमाण है। उन परिणामों में समयोत्तर क्रम से अनंत गुणी विशुद्धि समझनी चाहिए। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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